क्या वेद कलामे इलाही है?

वेद क्या है?

क्या वेद कलामे इलाही यानी ईशवाणी है? 

यह बात वैदिक संस्कृत और वैदिक संस्कृति का इतिहास न जानने वाले किसी मुस्लिम से ज़्यादा एक शंकराचार्य और एक पंडित जानेगा। यह बात कॉमन सेंस की है।

#सायण , #शंकराचार्य जैसे वैदिक पंडितों से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू तक सब स्कालर्स वेदों को ऋषियों का रचा हुआ काव्य मानते हैं। जिनमें ऋषियों ने सूर्य और अग्नि यानी सूरज और आग आदि प्रकृति की चीज़ों की स्तुति की है और वे ऋषि अग्नि को दूत चुनते थे और वे आग में भोजन सामग्री डालकर यह मानते थे कि अग्नि देवता उस भेंट को सूर्य और वायु आदि अन्य देवताओं तक पहुंचा देगा। इस प्रकार ऋषियों ने भेंट देकर बहुत से देवताओं से पशु, धन और शत्रुओं पर विजय पाने आदि की अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए दुआएं की हैं।

मैं भी यही मानता हूँ। जो सनातनी विद्वान मानते हैं। सभी शंकराचार्य जिस वेदानुवाद को मानते हैं, उसमें इस्लामी तौहीद नहीं है। मैं यही मानता हूँ कि वेदों में इस्लामी तौहीद नहीं है।

#BHU #बनारसहिंदूयूनिवर्सिटी में जो प्रामाणिक वेद भाष्य पढ़ाया जाता है, उसमें इस्लामी तौहीद नहीं है। उसमें 'ब्रह्म' शब्द भी आया है तो उसके साथ ज्येष्ठ ब्रह्म और कनिष्ठ ब्रह्म यानी बड़ा ब्रह्म और छोटा ब्रह्म शब्द भी आया है। जिससे पता चलता है कि ब्रह्म से हर जगह रचयिता परमेश्वर अभिप्रेत नहीं है। किस मंत्र में ब्रह्म का तात्पर्य रचयिता परमेश्वर से है?, यह मेरे लिए अभी तक खोज और अनुसंधान का विषय है।

अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब इस ग़लत अक़ीदे को पूरे यक़ीन से मानते और मनवाते हैं कि वेद कलामे इलाही है। जिसे सायण जैसा वेद का भाष्यकार नहीं मानता। मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी साहब ने यह कभी नहीं माना कि वेद पहला कलामे इलाही है। जिन्होंने पूरी ज़िन्दगी वेद पढ़े। उन्होंने यही बताया कि वेद ऋषियों की रचना है। मैं भी यही मानता हूँ क्योंकि यह बात तथ्यों से प्रमाणित की जा सकती है।  हरेक सूक्त के शुरू में उस सूक्त के मंत्रों की रचना करने वाले ऋषियों के नाम लिखे हुए हैं।

वेद ईशवाणी हैं। यह मान्यता इस्लाम की नहीं है। यह मान्यता सनातन धर्म की भी नहीं है। यह मान्यता आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी की है।

आदरणीय जनाब सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब आर्य समाज के इसी ग़लत अक़ीदे पर ईमान ले आए तो यह उनकी अपनी पसंद की बात है। वह यज्ञ में शामिल होकर देवताओं को भोजन सामग्री की भेंट देते हैं, जोकि वैदिक धर्म का धार्मिक कल्चर है और खुला शिर्क है तो यह भी उनकी अपनी पसंद की बात है।

मेरा यह लिखने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि

आप सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब के अक़ीदे और उनके अमल को देखकर वेद को कलामे इलाही मानने और वैदिकों के साथ हवन करने से पहले यह जान लें कि ऐसा करके आप शिर्क कर रहे हैं।

आप यह जान लें कि हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने कभी यज्ञ और हवन नहीं किया।

मोहतरम तारिक़ साहब का अक़ीदा और अमल देखकर ख़ुद वही करने से पहले आप एक बार सनातन धर्म के विद्वानों की नज़र में प्रामाणिक माना जाने वाला वेदभाष्य पढ़कर देख लें कि

उसमें परमेश्वर के एक होने का या अल्लाह की तौहीद का ज़िक्र है भी या नहीं?

क्योंकि सैकड़ों तहरीफ़ और मिलावट के बावुजूद कलामे इलाही से तौहीद कभी नहीं मिटती।

तौरात और इंजील इसका सुबूत हैं। उनमें आज भी तौहीद की आयतें मौजूद हैं।

... लेकिन आपको हैरत होगी कि वेदों में तौहीद के दो चार सूक्त तक नहीं हैं।

अब आप सब यह सवाल करेंगे कि जब वेदों में तौहीद के दो चार सूक्त तक नहीं हैं तो फिर WORK Rampur के कार्यकर्ता वेदों को कलामे इलाही क्यों मानते हैं?

इसका जवाब है: 'अंधभक्ति और भेड़चाल।'

इनका मानना है कि सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब जैसा अल्लामा कभी ग़लत बात नहीं कह सकता।

क्यों नहीं कह सकता?

वर्क मिशन के वर्तमान प्रमुख तारिक़ साहब तहक़ीक़ (रिसर्च) पर ज़ोर देते हैं और वर्क के कार्यकर्ताओं ने आज तक तहक़ीक़ ही नहीं की। अगर वे तहक़ीक़ करते तो उन्होंने मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रहमतुल्लाहि अलैह की तहक़ीक़ में कोई ग़लती पकड़ी होती या उसमें किसी नई खोज का इज़ाफ़ा किया होता। वर्क में 30 साल के बाद भी तारिक़ साहब के बाद वेद के दस बीस मुहक़्क़िक़ यानी रिसर्च स्कालर भी न बने और न उनकी वेद के विषय पर दस बीस नई किताबें आईं।

अब जब मैं वेदभाष्यों पर अपनी तहक़ीक़ के बाद यह लिखता हूँ कि वेद में तौहीद नहीं है बल्कि प्रकृति की पूजा है तो वर्क से जुड़े अंधभक्तों का सवाल मुझसे यही होता है कि

'...तो क्या मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह भी ग़लत थे?'

ऐसा करके वह मेरे सामने धर्म संकट पैदा करते हैं, कि अब देखते हैं कि ये अपने उस्ताद मरहूम को ग़लत कैसे कहेंगे?

... क्योंकि भारत में अंधभक्ति का रिवाज आम है। कोई भी आदमी अपने उस्ताद को ग़लती पर देखकर भी उन्हें ग़लत न कहे। हमारे दीनी इदारे हमारे अंदर उस्ताद के अदब के नाम पर यह मिज़ाज पैदा करते हैं। अगर कोई कह देता है कि हाँ, उस्ताद से ग़लती हो सकती है और उनसे ग़लती हुई है तो फिर अंधभक्तों को यह शोर मचाने का पूरा मौक़ा मिल जाता है कि देखो यह आदमी ख़ुद को हज़रत मौलाना से बड़ा आलिम समझता है।

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह बहुत बड़े आलिम से भी बड़े आलिम थे। उनकी इल्मी बड़ाई की एक निशानी यह थी कि वह अपनी सारी रिसर्च हरेक ख़ास व आम के सामने रखकर कहते थे कि आप बताएं कि क्या मैं सही समझा? कहीं मैं कोई ग़लती तो नहीं कर रहा हूँ?

और जब कोई आदमी उन्हें उनकी ग़लती बताता था तो चाहे उनकी ग़लती नहीं होती थी तब भी वह उस पर सौ बार से ज़्यादा विचार करते थे कि कहीं मुझसे सचमुच कोई ग़लती तो नहीं हो रही है और ग़लती बताने वाले का बार बार इतना ज़्यादा शुक्रिया अदा करते थे कि उसे ऐसा लगता था जैसे उसने कोई बहुत बड़ी नेकी कर ली हो और उम्मत को किसी बड़े नुक़्सान से बचा लिया हो।

...और अगर कोई उन्हें उनकी ग़लती नहीं बताता था तब भी वह ख़ुद ही हज़ारों बार और सालों साल अपनी बातों की बार बार जाँच पड़ताल करते रहते थे कि कहीं मुझसे कोई ऐसी ग़लती तो नहीं हो रही है, जिससे मोमिनों का ईमान और आख़िरत ख़राब हो जाए!

उनका यह विश्वास था कि उनसे ग़लती हो सकती थी।

उनका इस बात पर बहुत ज़्यादा इसरार (आग्रह) था कि उनकी रिसर्च की इस नज़र से गहराई से स्टडी की जाए कि उसमें कोई ग़लती तो नहीं है।

इससे हर आदमी की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि उनकी रिसर्च को मानने से पहले उसकी स्टडी कर ले और उसे ज़रूर चेक कर ले।

तारिक़ साहब बताते हैं कि उन्होंने मौलाना की रिसर्च को मानने से पहले उसकी गहरी स्टडी की और उसे असल किताबों से मिलाकर चेक किया। उनकी रिसर्च में जो बातें ग़लत थीं या उन्हें जिनकी दलील कमज़ोर लगी, उन्होंने उन बातों को छोड़ दिया ओर उन बातों को 'अगर अब भी ना जागे तो ...' नामक बुक में नहीं लिखा। इस बात से मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह उनसे नाराज़ नहीं हुए बल्कि उनके इस काम से बहुत ख़ुश हुए और उन्हें बहुत दुआएं दीं और वह उनकी अक़्ल और उनकी मेहनत और उनकी क़ुर्बानियों की बहुत ज़्यादा तारीफ़ करते थे।

इस बात को तारिक़ साहब हरेक तरबियती कैंप में बताते थे। यह हम सब पर तारिक़ साहब का एहसान है कि उन्होंने अपने उस्ताद की ग़लत और कमज़ोर बातों को छाँटकर अलग कर दिया

लेकिन यह समझना ग़लती होगी कि अब 'अगर अब भी ना जागे तो ...' नामक बुक में कोई ग़लत बात नहीं है या उसमें जितनी बातें लिखी हैं, सबकी दलीलें मज़बूत हैं। उसमें अब भी ग़लत और कमज़ोर बातें होना मुमकिन है।

अगर तारिक़ साहब अपने उस्ताद की बातों में सही, ग़लत और कमज़ोर बातें छाँट सकते हैं और इससे यह नहीं समझा जाता कि वह ख़ुद को मौलाना से बड़ा आलिम समझ रहे हैं बल्कि इसे उनकी जागरूकता और एहसासे ज़िम्मेदारी माना जाता है और यही सही इस्लामी तरीक़ा है तो मेरी कोशिशों को भी इसी नज़र से देखा जाए।

मैं जब दलील के साथ लिखता हूँ कि वेद कलामे इलाही नहीं हैं तो भले ही वर्क के #अंधभक्तों को यह नागवार लगे लेकिन जो लोग न्यूट्रल हैं और सच जानना चाहते हैं, वे इसे मेरी जागरूकता और एहसासे ज़िम्मेदारी ही समझते हैं कि

मैं मुस्लिमों को अक़ीदे की ख़राबी और शिर्क से बचाने के लिए ही ऐसा बार बार लिखता हूँ।

इसी के साथ अपने उस्ताद मौलाना मरहूम की तरह मैं भी बार बार यही कहता हूँ कि मेरी बात ग़लत हो सकती है। जो भाई दलील के साथ मेरी ग़लती मुझ पर साबित करेगा। मैं उसकी बात मान लूंगा। जो आदमी वेद को कलामे इलाही मानता है, वह मुझे वेद में इस्लामी तौहीद या महज़ तौहीद के दो चार सूक्त दिखाए।

क्या कोई कलामे इलाही ऐसा मिलता है, जिसमें अल्लाह ने अपनी तौहीद न बयान की हो या तहरीफ़ के बाद उसमें अब 'अल्लाह की तौहीद' न मिलती हो?

मैं ख़ुद को इल्म में मौलाना से और तारिक़ साहब से छोटा मानता हूँ। 

इस्लाम यह नहीं कहता कि कम इल्म वाला अपने से बड़े आलिम की बात बिना दलील के मान ले।

यक़ीनन अल्लाह अपने आलिमों की अंधी तक़्ली और #अंधभक्ति से रोकता है।

मैं वेदों पर 30 साल की तहक़ीक़ के बाद आप सबसे कहता हूँ कि 'वेद को कलामे इलाही मानना ग़लत है और तारिक़ साहब का सनातन वैदिकों के साथ यज्ञ की अग्नि में भोजन डालना दूसरे धर्म की धार्मिक कल्चर को फ़ोलो करना शिर्क है। जो इस्लामी शरीअत में हराम है।' ख़ुद तारिक़ साहब भी किसी मुस्लिम द्वारा दूसरे धर्म की धार्मिक कल्चर को फ़ोलो करना ग़लत मानते हैं।फिर भी वह ख़ुद हवन में भेंट स्वरूप भोजन सामग्री जलाते हैं तो यह उनके फ़िक्र व अमल (सिद्धांत और कर्म) में टकराव का सुबूत है।

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह का मिशन रिसर्च और तहक़ीक़ का मिशन था। जो अब तारिक़ भाई की अंधभक्ति में बदलकर अब रिवर्स हो चुका है। जो मिशन हिंदू क़ौम को नमाज़ की तरफ़ लाने के लिए शुरू हुआ था, अब वह मुस्लिमों को यज्ञ और हवन में ले जाने का काम करता है।

असल बात यह है कि वर्क के कार्यकर्ताओं ने वेद नहीं पढ़ा होता और वे वेद को पहला कलामे इलाही सिर्फ़ इसलिए मान लेते हैं कि अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब या मौलाना शम्स नवेद उस्मानी वेदों को कलामे इलाही मानते हैं। ख़ुद किसी किताब को पढ़े बिना किसी के मानने की वजह से उसे कलामे इलाही मान लेना भेड़चाल और अंधभक्ति है।

आप वर्क के कार्यकर्ताओं में भेड़चाल और अंधभक्ति आम देख सकते हैं। 

मेरी पोस्ट पढ़कर वर्क के कार्यकर्ता वेद को कलामे इलाही साबित नहीं कर सके। वेद कलामे इलाही नहीं हैं, वे कार्यकर्ता यह मान नहीं सकते क्योंकि उनके मन में यह विश्वास जमा हुआ है कि तारिक़ साहब सबसे ज़्यादा वेद और क़ुरआन जानते हैं। वे इतनी बड़ी मिस्टेक नहीं कर सकते।

'वेद कलामे इलाही नहीं हैं', तारिक़ साहब इस बात को यूँ नहीं मान सकते कि ऐसा मानते ही पूरी हिंदू क़ौम के ईमान लाने और फिर भारत के पूरी दुनिया का इमाम बनने की कल्पना भी ख़ुद ही ग़लत साबित हो जाती है, जिसकी तब्लीग़ वह ज़िंदगी भर करते रहे। उनके पूरे दावती नज़रिए की बुनियाद वेद के कलामे इलाही होने पर टिकी हुई है। यह ग़लत बुनियाद ढहती है तो बहुत कुछ ढह जाता है।

वैसे तारिक़ साहब शायद जान चुके हैं कि न तो अभी अधिकतर भारतीयों में विश्व के दूसरे देशों के लोगों का नेतृत्व करने का चरित्र और क्षमता है और न ही उन्हें 5 साल बाद हिंदू क़ौम ईमान लाती दिख रही है। इसलिए उन्होंने अब एक नई शर्त ख़ुद जोड़ दी है कि अगर मुस्लिमों ने तब्लीग़ में अपनी योग्यता न दिखाई तो फिर हिंदू क़ौम 40 साल बाद ईमान लाएगी।

मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रहमतुल्लाहि अलैह ने ऐसी कोई बात कभी नहीं कही। 

40 साल बाद यहाँ न आज का कोई वर्कर उनसे यह पूछने वाला होगा और न उसे बताने के लिए तारिक़ साहब होंगे कि हिंदू क़ौम तो अब भी ईमान नहीं लाई। क्या अब यह और चालीस साल बाद ईमान लाएगी?

उनकी इस बात को मानें तो हिंदू क़ौम का ईमान लाना मुस्लिम क़ौम की योग्यता पर निर्भर है, वेद मिलने पर नहीं जैसा कि 'यजिदूना सुहुफ़न...' वाली हदीस में आया है?


बहरहाल हिंदू क़ौम ईमान न लाई तो तारिक़ साहब पाँच साल बाद भी कह सकेंगे कि देखो मैंने पहले ही बता दिया था। यह एक उम्दा हिकमत है। उन्होंने अपने आप को बचाने के लिए एक उज़्र और उपाय पहले ही तैयार करके लोगों के मन में अभी से इंस्टॉल करना शुरू कर दिया है। जो अपने ठीक समय पर फल देगा। यही माइंड प्रोग्रामिंग कहलाती है। मोहतरम तारिक़ साहब माइंड प्रोग्रामिंग के दुनिया के बेस्ट एक्सपर्ट्स में से एक हैं और यह उनकी एक बड़ी ख़ूबी है।

मैं अपने बहुत से लेखों में अपने पाठकों को माइंड प्रोग्रामिंग की कला सीखने के लिए कहता हूँ और मैं ख़ुद भी इस कला को सीख रहा हूँ। यह कला आपको #आत्मनिर्भर और समाज में लीडर बनाती है। इस कला से आप दूसरों के ग़लत वैचारिक हमलों से अपने मन और अपने नज़रिए की, अपने ईमान की हिफ़ाज़त करने में मदद ले सकते हैं।

मुझे अपने दोस्तों को नाराज़ करना अच्छा नहीं लगता लेकिन मेरे ज़िम्मे वाजिब हो जाता है कि 30 बरस की तहक़ीक़ के बाद जो हक़ मुझ पर रौशन हुआ है, मैं उसे आप सबको बता दूँ।

वह हक़ यह है कि 'वेद कलामे इलाही नहीं है।'

'वेद कलामे इलाही है।', यह आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जी का अक़ीदा है जो कि ग़लत है।

दयानंद जी ने वेदों को लेकर कई झूठे दावे किए हैं जैसे कि

1. वेद 1 अरब 96 करोड़ 56 हज़ार साल से अधिक समय पहले नाज़िल हुए।

2. वेद तिब्बत में नाज़िल हुए।

3. वेदों में इतिहास नहीं है।

4. वेद पूरी तरह सुरक्षित हैं।

आप एक सरसरी नज़र डालकर ही समझ लेंगे कि ये सब झूठी बातें हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार 1 अरब 96 करोड़ 56 हज़ार साल पहले वेद तो क्या, धरती पर बैल‌ बकरी तक न थे।

आप भाषा वैज्ञानिकों की रिसर्च देखकर पता कर सकते हैं कि क्या वैदिक संस्कृत 1 अरब 96 करोड़ 56 हज़ार साल पुरानी भाषा है?


इस्लाम में तौहीद देखकर हिंदू मुस्लिम बन रहे थे। स्वामी दयानंद जी ने हिंदुओं को मुस्लिम बनने से रोकने के लिए वेदों का ग़लत अनुवाद करके उनमें तौहीद का अर्थ जबरन थोप दिया ताकि जो सनातनी हिंदू भाई बहन तौहीद के आकर्षण के कारण मुस्लिम बनने की सोचे, वह मुस्लिम न बने बल्कि आर्य समाजी बन जाए। उसे आर्य समाज में ही तौहीद (एकेश्वरवाद) की शिक्षा दिख जाए। आर्य समाज का एकेश्वरवाद मृग मरीचिका (#mirage) की तरह है, जो दिखता है लेकिन हक़ीक़त में वह नहीं होता।

जो मुस्लिम आलिम आर्य समाजी वेदभाष्य पढ़कर वेदों में तौहीद मान रहे हैं, वे हक़ीक़त में स्वामी दयानंद जी के धोखे और झूठ के शिकार हो रहे हैं। जो उन्होंने हिंदुओं को धोखा देने के मक़सद से रचा था। मोमिन वह होता है, जो न दूसरों को धोखा दे और न ख़ुद ही धोखा खाए। मेरे इस लेख का यही मक़सद है कि आप मोमिन बनें यानी न आप दूसरों को धोखा दें और न आप ख़ुद ही धोखा खाएं।

अब आप यह बात अच्छी तरह जान चुके हैं कि सबसे पहले वेदों के कलामे इलाही होने की अफ़वाह स्वामी दयानंद जी ने इस्लाम का प्रसार रोकने के लिए फैलाई थी। वर्क का कोई कार्यकर्ता उनसे पहले के किसी विद्वान के ग्रंथ में यह विचार दिखा दे तो यह मेरे लिए एक नई बात होगी।


अत: मैं एक बार फिर कहता हूँ कि

'वेद कलामे इलाही नहीं हैं।'

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