FAQ about WORK part 1

 वर्क रामपुर की विचारधारा के संबंध में जो प्रश्न मुझसे बार-बार पूछे जाते हैं उनमें से कुछ प्रश्न ये हैं:

प्रश्न: क्या आप मानते हैं कि वर्ष 2026 में हिंदू क़ौम बदलकर मुस्लिम होने जा रही है?

उत्तर: नहीं, ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। अगर आप समझ रहे हैं कि हिंदू क़ौम सन 2026 मूर्ति पूजा छोड़कर नमाज और हज करने लगेगी हिंदू क़ौम के मर्द अपना करवा लेंगे और हिन्दू औरतें शरीअते इस्लाम के मुताबिक़ हिजाब पहनने लगेंगी तो यह केवल आपका अपना परसेप्शन है। ऐसा नहीं होने जा रहा है। आपको यह बात ठीक से समझने की ज़रूरत है कि कोई बड़ी और पुरानी क़ौम अपने अन्दर किस तरह बदलाव लाती है?

जब एक पुरानी क़ौम किसी तेज़ फैलती हुई नई विचारधारा के संपर्क में आती है तो पुरानी क़ौम का एक वर्ग अपना भौतिक हित देखकर उसमें शामिल हो जाता है और उसी कौम का शासन करने वाला एक वर्ग अपनी क़ौम को घटता हुआ देखकर इस पलायन को रोकने के लिए उस नई तेज़ फैलती हुई विचारधारा से समस्याओं के समाधान के तत्व अपनी विचारधारा में लेकर उसे अपडेट करता है ताकि उसके अनुयायियों को नई विचारधारा के तत्व पुराने समाज में ही मिल जाएं। जिससे वे पुराने समाज में ही बने रहें और उच्च जातीय लोगों का उन पर बदस्तूर प्रभाव बना रहे और उनके समाज के लोगों की श्रद्धा का और उनके धन का प्रवाह नीचे से ऊपर की तरफ पहले की तरह बना रहे और ऊपर वाले मौज ले सकें।

आप देख सकते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अखंड भारत के नक्शे में ईरान, मलेशिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान, ईरान आदि देशों को दिखाता है। इनमें से आज कई देशों के लोग मुस्लिम कहलाते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक और उलमा ए हक़ दोनों बताते हैं कि पहले इस इलाके में सब हिंदू थे। अब उन इलाकों में मुस्लिम हैं तो इसका यही अर्थ है कि हिंदू क़ौम बदलकर मुस्लिम बनी। यह तब्दीली ए क़ौम ही तो हुआ।

जब इतने बड़े पैमाने पर हिंदू क़ौम बदल रही थी तो उसे रोकने के लिए इस्लाम के मानवाधिकार, तलाक़, बराबरी, शिक्षा व विकास के समान अवसर आदि तत्वों को हिंदू समाज के विचारकों ने अपने समाज में ही देना शुरू कर दिया ताकि हिंदू समाज से पलायन रुके।

स्वामी दयानंद जी ने वेदों में अग्नि और सूर्य का अर्थ परमेश्वर करके उनका एकेश्वरवाद परक अर्थ किया और मूर्ति पूजा का घोर खंडन किया ताकि हिंदू समाज का विघटन रुके।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने मंच से छूतछात मिटाई और इस्लाम के बराबरी व भाईचारे की शिक्षा को समता व समरसता कह कर देना शुरू किया ताकि हिंदुओं को इस्लाम की जो बातें आकर्षित करती है, उन्हें वे बातें हिंदू धर्म में ही उपलब्ध कराई जाएं। इसके लिए हिंदुओं ने सैकड़ों साल मदरसों में शिक्षा ग्रहण की। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ० राजेंद्र प्रसाद जी ब्राह्मण थे और वह मदरसे से पढ़े हुए थे।

देश आज़द हुआ तो गांधी, नेहरू व पटेल आदि ने हिंदू धर्म के परंपरागत संविधान को देश का संविधान नहीं बनाया बल्कि अंग्रेजों के संविधान में ही कुछ संशोधन करके उसे देश का संविधान बनाया। इस संविधान में इस्लामी शरीअत के कुछ कानूनों को भी देश का कानून बना दिया है। जिसका पालन सब करते हैं और देश के नागरिकों को पता नहीं है कि वे जब देश का संविधान सबके बीच बराबरी और सबके लिए शिक्षा और विकास की बात करता है तो वह इस्लाम के शरई क़ानून को ही लागू करता है।

यह भी क़ौम का बदलना ही हुआ। जिसे उलमा ए हक़ और आम मुस्लिम क़ौम का बदलना नहीं मानते क्योंकि उनकी नज़र में क़ौम के बदलने का बस यही अर्थ है कि वह अपने दीन की रस्में छोड़कर इस्लाम के तरीक़े से इबादत वगैरह करने लगें। ऐसा कुछ 2026 में होने वाला नहीं है।

हाँ, यह ज़रूर होगा कि आने वाले वक़ में हर आदमी को अपने धर्म की इबादतों को करने की पहले से ज़्यादा आज़ादी होगी। अक़ीदे, जाति और रंग व नस्ल की बुनियाद पर भेदभाव और हिंसा के अवसर और कम हो जाएंगे। जो कि इस्लाम की शिक्षा है। ऐसा होना भी इस्लाम का विस्तार ही है लेकिन उलमा ए हक़ और आम मुस्लिम इसे इस्लाम का फैलाव नहीं मानते क्योंकि उनके माइंड में इस्लाम के बारे उनका अपना मनघड़न्त तसव्वुर जमा हुआ है कि इस्लाम बस इस्लाम के 5 पिलर्स के दरम्यान ही है। हक़ीक़त यह है कि इस्लाम 5 पिलर्स के बाहर भी है और जो लोग इस्लाम के इबादती निज़ाम से बाहर है, उनके लिए भी इस्लाम कल्याण के लिए बहुत सी व्यवस्थाएं करता है। जिसे कोई भी आदमी क़ुरआन पढ़कर या अपनी आज़ाद अक़्ल से सोचकर डिस्कवर कर सकता है कि समाज में अपनी भलाई के लिए जैसा कुछ एक आदमी अपने लिए पसंद करे, वही वह दूसरे आदमी के लिए पसंद करे। वह खुद खाए तो अपने भूखे पड़ोसी को भी खिलाए और उसे अपनी तरफ से कष्ट ना दे। अपनी ज़ुबान और अपने हाथ से दूसरों को सुरक्षित रखे। ये सब बातें भी इस्लाम ही हैं और आज इन बातों को दुनिया में क़ानून का दर्जा दिया जा चुका है और समय के साथ इन्हें और ज़्यादा ज़िम्मेदारी से लागू किया जाएगा क्योंकि अब सब देश व्यापार के माध्यम से एक दूसरे से जुड़ चुके हैं और सब संस्कृतियों के लोग सब देशों में बस चुके हैं। ऐसे में भेदभाव और हिंसा के अवसर कम होने ही हैं।

यह सब बदलाव तब्दीली ए क़ौम में ही आते हैं। इसलिए इन्हें तब्दीली ए क़ौम में ही माना जाना चाहिए।

मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने एक बार मुझसे कहा था कि हज़रत शाह वलीउल्लाह रहमतुल्लाही अलैह की पेशीनगोई में यह बात आई है कि हिंदू क़ौम के रहबर इस्लाम को ‘अपना दीन’ बना लेंगे।

मौलाना उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने यह बारीक नुक्ता बयान किया कि इसका यह मतलब नहीं है कि हिंदू मुसलमान हो जाएंगे बल्कि इसका यह मतलब है कि वे इस्लाम को अपने दीन के रूप में पहचान जाएंगे और वे इस्लाम को अपना दीन बना लेंगे। यानी वे उसके कानून को अपना कानून बना लेंगे। और आर्य समाज से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तक बड़ी-बड़ी हिंदू संस्थाएं लगातार यही काम तो कर रही हैं।

जिस वक़्त मुस्लिम शासक इस देश में दाख़िल हुए थे। आप उस वक़्त के हिंदू समाज और आज के हिंदू समाज की मानसिकता और व्यवहार की तुलना करेंगे तो आप पाएंगे कि हिंदू समाज तब से अब तक बहुत बदल गया है। उसे इस बदलाव का लाभ भी मिल रहा है। आज दर्जनों देशों में हिंदू बड़े पदों पर बड़ी जिम्मेदारियां संभाल रहे हैं और इसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी मानसिकता और अपने व्यवहार में बदलाव किया है यह बदलाव लगातार जारी है 

प्रश्न: क्या आप मानते हैं कि हिंदू हजरत नूह अलैहिस्सलाम की क़ौम हैं?

उत्तर: हिंदू फारसी भाषा का शब्द है जो इंडस वैली के आसपास के इलाके में आबाद काले लोगों के लिए बोला जाता था और फिर बाद में इसे फ़ारसी बोलने वाले मुस्लिम शासक दीन धर्म और मजहब के अर्थ में भी बोलने लगे। इस इलाक़े में बहुत से दीन को मानने वाली उम्मतें मौजूद हैं। उनमें से एक हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की कौम भी है। हिंदू कहलाने वाले सब लोग हजरत नूह अलैहिस्सलाम की क़ौम नहीं हैं। हिंदू कहलाने वालों में थोड़े से लोग हजरत नूह अलैहिस्सलाम की क़ौम हैं। ये वे लोग हैं जो पुराणों और उन ग्रंथों को मानते हैं। जिनमें हज़रत नूह अलैहिस्सलाम का ज़िक्र है। भारत के आदिवासी सरना धर्म को मानते हैं। वे वेद और मनु को नहीं मानते। मूलनिवासी कहलाने वाले दलित भी वेद और मनु को नहीं मानते। इसलिए ये भी हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की क़ौम नहीं हैं।


प्रश्न: क्या वेद कलामे इलाही हैं?

उत्तर: वेदों में कलामे इलाही के लक्षण नहीं मिलते इसलिए वेद कलामे इलाही अर्थात परमेश्वर की वाणी नहीं हैं। हरेक कलामे इलाही में तौहीद का ऐसा स्पष्ट बयान जरूर मिलता है, जिसके अर्थ में कोई संदेह न हो। दूसरी ख़ास बात कलामे इलाही में यह पाई जाती है कि उसमें पैदा करने वाले रब के लिए एक ऐसा नाम ज़रूर इस्तेमाल किया जाता है जो उसका कलाम में किसी दूसरी चीज़ के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता। ये दोनों बातें क़ुरआन में, तौरात, ज़बूर और इंजील में देखी जा सकती हैं।

ये दोनों बातें वेदों में नहीं मिलतीं। जब वेदों में रब का नाम नहीं है और रब की तौहीद का स्पष्ट बयान भी नहीं है तो वेद कलामे इलाही भी नहीं हैं। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि वेदों में सृष्टि कर्ता के लिए कोई ऐसा नाम प्रयुक्त नहीं हुआ है जो किसी अन्य सृष्टि के लिए न बोला गया हो। ब्रह्म शब्द भी वेदों में सृष्टि के लिए प्रयुक्त हुआ है और वेदों में कनिष्ठ ब्रह्म और ज्येष्ठ ब्रह्म कई प्रकार के ब्रह्म बताए गए हैं। इसलिए वेद कलामे इलाही या परमेश्वर की वाणी नहीं है बल्कि वेद ऋषियों द्वारा रचा हुआ काव्य हैं। हरेक सूक्त से पहले अनुक्रमणिका में हरेक वेद मंत्र के रचनाकार ऋषि का नाम लिखा हुआ है।


प्रश्न: क्या वेदों में तौहीद है?

उत्तर: सायण के भाष्य में तौहीद नहीं मिलती। जो कि स्वामी दयानंद जी से पहले मौजूद था। उसमें अग्नि व सूर्य आदि प्राकृतिक चीज़ों की और इन्द्र आदि राजा की स्तुति करके उनसे मनोकामना पूर्ति की प्रार्थनाएं है। जिन्हें पुराणों के साथ जोड़कर देखा जाए तो सारी बात समझ में आ जाती है क्योंकि वेदों में जो इतिहास संक्षेप में है। वही इतिहास पुराणों में विस्तार से पुराण का अर्थ है पुराना इतिहास।

जब तक वेदों को पुराणों से ना काटा जाए तब तक उनका अर्थ नहीं बदला जा सकता और नए ही उन्हें परमेश्वर की वाणी बताया जा सकता है। इसीलिए स्वामी जी ने पुराणों को मानने से इनकार कर दिया और उन्होंने वेदों में भी इतिहास मानने से इंकार कर दिया। अब स्वामी को यह आज़ादी मिल गई कि वे वेदों में ‌अग्नि, सूर्य और इन्द्र को परमेश्वर का नाम मानकर उनका एकेश्वरवादी भावार्थ बना सकें। स्वामी दयानंद जी ने क़ुरआन के फैलाव को रोकने के लिए अग्नि, सूर्य , इन्द्र और अश्व (घोड़ा) को परमेश्वर का नाम बताकर वेदों में क़ुरआन जैसी तौहीद का अर्थ आरोपित कर दिया ताकि उनका अपना धर्म ही इस्लाम जैसा बन जाए और जो सनातनी इस्लाम अपनाना चाहें, वे आर्य समाज अपना कर संतुष्ट हो जाएं। स्वामी जी ने सर्वथा नवीन वेदभाष्य करके वैदिक धर्म की राजनैतिक और सामाजिक ज़रूरत को पूरा करने‌ की कोशिश की लेकिन क्योंकि वह वास्तविक वेदार्थ न था। इसलिए जब उसे स्वामी जी ने देश विदेश के वेद विशेषज्ञों के पास भेजा तो उसे किसी ने भी सही स्वीकार न किया। स्वामी दयानंद जी का वेदभाष्य केवल आर्य समाजी मत के थोड़े से लोग ही मानते हैं या फिर उसे इस्लाम के प्रचारक मानते हैं क्योंकि वे इस्लाम के पक्ष में वेदों से तौहीद के प्रमाण देना चाहते हैं तो उन्हें सनातनी वेदाचार्यों के वेदभाष्य में एकेश्वरवाद नहीं मिलता। इसलिए वे दयानंदी वेदभाष्य से ही एकेश्वरवाद के प्रमाण देते हैं। 

वेदों में तौहीद दिखाने वाले वर्क रामपुर के और इस्लाम के दूसरे प्रचारक कभी पूरा सूक्त नहीं दिखाते कि देखो, यह पूरा सूक्त तौहीद से भरा हुआ है। अधिकतर वे मंत्र का एक टुकड़ा या बहुत हुआ तो केवल एक मंत्र दिखाते हैं कि देखो, इसमें आया है कि 'उसकी प्रतिमा नहीं है'. इन मंत्रों में भी परमेश्वर का नाम नहीं होता। वे 'उसकी' शब्द से वे ख़ुद ही परमेश्वर अर्थ ले लेते हैं। जबकि आत्मा की भी प्रतिमा नहीं होती और जब सूक्त से पहले मौजूद अनुक्रमणिका में उस मंत्र का देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय देखा जाता है तो वहाँ आत्मा लिखा हुआ मिलता है। वर्क रामपुर के लिट्रेचर में भी यह तथ्य स्पष्ट है कि परमेश्वर और आत्मा अलग हैं। आत्मा के विषय में कही गई बात को परमेश्वर के बारे में कहकर आर्य समाजी प्रचारक प्रचारित करते हैं और इस्लामी प्रचारक उनकी भ्रान्त और मिथ्या बात का प्रचार मुस्लिमों में करते‌ हैं। जैसे कि तौहीद भाई ने एक वेदमंत्र *'न तस्य प्रतिमा अस्ति'* यजुर्वेद 32:3

के बारे में पूछा है कि वह परमेश्वर के बारे में है या नहीं? तो आप यह बात ख़ुद भी बहुत आसानी से जान सकते हैं। जब आप अनुक्रमणिका में यजुर्वेद 32:3 का देवता देखते हैं तो आपको वहाँ इस मंत्र का देवता *'आत्मा'* लिखा हुआ मिलेगा और इस तरह आप जान लेंगे कि यह बात आत्मा के विषय में कही जा रही है कि आत्मा की प्रतिमा नहीं है। यह बात सच है। यह मंत्र परमेश्वर के विषय में नहीं है। इसे आर्यसमाजी साहित्य में पढ़कर मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने तौहीद की दलील समझ लिया। अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब ने इसे किताब में दर्ज कर दिया और अब वर्क रामपुर के प्रचारक इस मंत्र से तौहीद की दलील देते हैं।

ऐसे ही आप वेदमन्त्र 'एक वृदेक एव' का देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय देखें तो आपको वहां देवता/विषय सूर्य मिलेगा अर्थात यह मंत्र सूर्य के विषय में है कि 'सूर्य का एक वृत एक ही है।'

वेदों में तौहीद साबित करने वाले मुबल्लिग़ 'स एष एक एकवृदेक एव' अथर्ववेद 13:4:20 का हवाला बड़ी रवानी से देते हैं और इस मंत्र में परमेश्वर के 'एक' होने की बात मानते हैं।
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जब यह मंत्र सियाक़ व सबाक़ से, पूर्वापर से मिलाकर पढ़ते हैं, तब पता चलता है कि
'स एष एक एकवृदेक एव' से तात्पर्य सूर्य का वृत है, न कि परमेश्वर (The Creator)!
मंत्र में कहा गया है कि सूर्य का गोला एक है। अथर्ववेद 13:4:12-13 में मंत्र कर्ता ऋषि ब्रह्मा ने सूर्य को सब देवताओं से बड़ा बताते हुए बिल्कुल साफ़ कहा कि
'यह सब उसे ही प्राप्त होता है, यह एक वृत केवल एक है। सब देवता इन एक को ही वरण करते हैं।'
अथर्ववेद के 13वें कांड के चौथे अनुवाक को शुरू से पढ़ें।
आपको पता चलेगा कि पहले मंत्र से 45वे मंत्र तक सूर्य के गुण गाए जा रहे हैं।
आप सच जानना चाहते हैं तो बीच में से एक मंत्र पढ़ने के बजाय 45 मंत्रों को एक साथ पढ़ें।
अनुवाद: पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, हरिद्वार

ऋषि ने जो बात सूर्य के गोले के बारे में बताई है‌। उसे इस्लाम के प्रचारक परमेश्वर के बारे में मान लेते हैं और फिर सबको बताते हैं। ऐसे ही आप उन सब मंत्रों का देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय देखकर बड़ी आसानी से समझ सकते हैं कि वेदों में जिन मंत्रों को परमेश्वर के विषय में बताया जाता है। हक़ीक़त में वे परमेश्वर के विषय में नहीं हैं। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने भी आर्य समाजी अनुवाद का प्रमाण देकर तौहीद साबित की। जोकि एक इल्मी ग़लती है। उनकी ग़लती को दोहराने और आगे बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है।


प्रश्न: क्या हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह जैसा आदमी ग़लती कर सकता है?

उत्तर: क्यों नहीं कर सकते? मैं मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह के साथ रह चुका हूं। उन्होंने कभी नहीं कहा कि मुझसे गलती नहीं होती बल्कि वह हमेशा अपनी रिसर्च में खुद अपनी ग़लती तलाश करते थे। वह अपने संपर्क में आने वाले हर नए आदमी तक से यह बात कहते थे कि अगर मेरी बात में आप कोई ग़लती पाएं तो आप मुझे ज़रूर बताएं। वह लगातार इंप्रूवमेंट करते रहते थे और इस मामले में वह बहुत, बहुत, बहुत ज़्यादा सतर्क रहते थे। अगर कोई आदमी उन्हें उनकी ग़लती बताता था और हक़ीक़त में वह बात ग़लत नहीं होती थी। तब भी वह उस पर बार-बार महीनों विचार करते थे कि कहीं इसमें कोई ग़लती तो नहीं है।

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह की बहुत सी बातों को अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब ने 'अगर अब भी ना जागे तो...' नामक किताब में इसीलिए जगह नहीं दी क्योंकि उन्हें उन बातों के हक़ में पर्याप्त सुबूत न मिले और ऐसा करने पर हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने उन्हें दुआएं दीं। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने उनसे ऐसा आग्रह न किया कि उनकी हर बात को ज़रूर छापा जाए। इससे आप मौलाना की एहतियात और ख़्वाहिश को समझ सकते हैं कि वह भी सिर्फ़ मज़बूत बात को ही आगे बढ़ाना चाहते थे।

इतनी ज्यादा एहतियात के बाद भी कुछ गलत बातें 'अगर अब भी ना जागे तो...' में छप गई हैं। जिन्हें बताने और समझाने के लिए एक पूरी किताब लिखने की ज़रूरत है। उन बड़े गलतियों में से एक गलती यह है कि हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह 'अरणी' का अर्थ मशाल बता गए हैं। जबकि अरणी का अर्थ लकड़ी होता है प्राचीन काल में माचिस या लाइटर से आग नहीं जलाई जाती थी। उस काल में ब्राह्मण सबसे पहले दो लकड़ियों को आपस में रगड़ कर आग जलाते थे। उसके बाद वे यज्ञ करते थे। दो लकड़ियों को आपस में रगड़ने को अरणी मंथन कहते हैं। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने कभी ख़ुद यज्ञ नहीं किया। उन्होंने कभी ब्राह्मणों को शुरू से आख़िर तक पूरा यज्ञ करते हुए भी नहीं देखा। सो जब उन्होंने पढ़ा कि 'अरणी मंथन से सबसे पहले अग्नि को प्रकट करो।' ...तो वह इसका सही अर्थ नहीं समझ पाए। उन्होंने कभी देखा नहीं था कि यज्ञ शुरू करने से पहले ब्राह्मण सबसे पहले दो लकड़ियों को आपस में रगड़कर कैसे अग्नि प्रकट करते हैं। उन्होंने दो अरणी का अर्थ दो मशाल मान लिया और जब वह इनसे अग्नि का प्रकट होना समझ न पाए तो उन्होंने दो मशालों का अर्थ दो ग्रंथ वेद और क़ुरआन मान लिया। अब वेद और क़ुरआन से अग्नि प्रकट कैसे हो? ...तो इससे उन्होंने यह मान लिया कि अग्नि का अर्थ आग नहीं बल्कि महर्षि अग्नि यानी तख़्लीक़े अव्व्ल यानी हज़रत अहमद अलैहिस्सलाम हैं।

यह पूरी तरह एक आरोपित अर्थ है। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह चिश्ती सिलसिले के सूफ़ी थे। हक़ीक़ते अहमदी सूफियों का बुनियादी सब्जेक्ट है। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह सूफ़ी होने के कारण हक़ीक़ते अहमदी के सब्जेक्ट को पहले से अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने पहले से मालूम इल्म को वेदों के अरणी मंथन पर फ़र्ज़ कर लिया। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह इसे क़ुरआन की रौशनी में वेद पढ़ना कहते थे लेकिन हक़ीक़त में यह क़ुरआन की रौशनी में वेद पढ़ना नहीं कहलाएगा बल्कि यह वेदमंत्रों में जबरन क़ुरआन का अर्थ घुसाना कहलाएगा। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह को इस तरह सर्वथा नवीन अलंकारिक अर्थ बनाने की प्रेरणा स्वामी दयानंद जी के वेदभाष्य से मिली होगी क्योंकि स्वामी दयानंद जी ने इसी तरीक़े से वेदमंत्रों का अर्थ किया है। यहाँ मौलाना की ग़लती इसलिए स्पष्ट है क्योंकि अरणी का अर्थ मशाल नहीं होता बल्कि लकड़ी होता है और लकड़ी का अलंकारिक अर्थ क़ुरआन लेना मुमकिन नहीं है। दो लकड़ियों को आपस में रगड़कर भौतिक आग जलाना ब्राह्मणों की परंपरा से साबित है और जब एक बात साबित है तो उसका ग़लत अर्थ करने और फिर उस ग़लत अर्थ का अलंकारिक अर्थ करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है।

आज इंटरनेट और यूट्यूब की सुविधा का दौर है। आप अरणी मंथन लिखकर यूट्यूब पर वीडियो में ब्राह्मणों को यज्ञ से पहले दो लकड़ियों का आपस में रगड़ कर आग जलाते हुए और फिर यज्ञ करते हुए, अग्नि को 'दूत' चुनते हुए देख सकते हैं। 

वेदमन्त्र 'अग्निं दूतं वृणीमहे' अर्थात हम अग्नि को दूत चुनते हैं, से अक़ीदा ए रिसालत साबित करना भी ग़लत है।

प्रश्न: क्या वेदों में नबी मुहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम का नाम और भविष्यवाणी है?

उत्तर: नहीं है। जब वेदों में तौहीद नहीं है तो फिर उनमें नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नाम कैसे हो सकता है? वेदों में एक जगह 'मामह' शब्द आया है जोकि वेदों में नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का नाम नहीं है क्योंकि उनका नाम 'मामह' नहीं है। वेदों में 31 जगह नराशंस शब्द आया है जोकि ब्राह्मणों को दान देने वाले राजा आदि प्रशंसित नरों के लिए आया है। आप सभी 31 जगहों पर 'नराशंस' नाम को पढ़ें और देखें कि क्या उन वेदमंत्रों में नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ज़िक्र है या वह ज़िक्र किसी और का है? सारी बात यह है कि आप वेदों को खुद पढ़ें। जैसे ही आप वेदों को खुद पढ़ेंगे। आप पर स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। आपका परसेप्शन बदल जाएगा। आप तुरंत समझ जाएंगे कि वेद में कुरआन दिखाने वाले मुस्लिम प्रचारकों ने आपको ग़लत जानकारी दी है और आपने उस ग़लत जानकारी को आम करके बहुत से लोगों के अक़ीदे ख़राब कर दिए हैं। अब इससे बचने और तौबा करने की ज़रूरत है।


प्रश्न: यानी आप हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह को, अपने उस्ताद मोहतरम को ग़लत मानते हैं?

उत्तर: नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं केवल उनसे ग़लतियों का होना मानता हूँ। जो कि हर एक रिसर्च स्कॉलर से होती हैं। किसी भी रिसर्च स्कॉलर से गलतियां होना नेचुरल है। उन ग़लतियों के कारण न तो रिसर्च बंद की जाती है और न ही रिसर्च स्कॉलर को ग़लत माना जाता है। जिन वेदमन्त्रों से तौहीद या रिसालत या हक़ीक़ते अहमदी साबित नहीं होती तो आप उनसे वह बात साबित न करें। उपनिषदों में तौहीद और आत्मा (हक़ीक़ते अहमदी) के रहस्य, दोनों हैं। आप उपनिषदों से तौहीद और हक़ीक़ते अहमदी के प्रमाण दें। इसमें कौन‌ सी बात रूकावट बन रही है? कोई भी नहीं।

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह की सबसे अच्छी बात यह थी कि जिस बात को वह नहीं जानते थे। उन्होंने उसे जानने की कोशिश की। हिंदू संत और मुस्लिम सूफ़ी सभी यह बात मानते हैं कि सब मनुष्यों में एक ही आत्मा का अंश है। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने एकत्व (वहदत) के इस सर्वमान्य तथ्य को सबके सामने दलीलों के साथ रखा। अब आप लोगों को उसी बात को दूसरी दलीलों से बता दें। ऐसा करना मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह को ग़लत मानना नहीं है बल्कि उनकी रिसर्च को इम्प्रूव करके उसे आगे बढ़ाना है। मैं लकीर पीटने के बजाय रिसर्च को आगे बढ़ाने में यक़ीन रखता हूँ।


प्रश्न: हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह की नज़र में वेद क्या हैं?

उत्तर: आम तौर से आर्य समाजी ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चार वेदों को वेद मानते हैं। सनातनी विद्वान ब्राह्मण ग्रंथों को भी वेद मानते हैं। सनातनी विद्वान वेदों को ऋषियों की रचना मानते हैं। वे इसमें आर्यों और दस्युओं का इतिहास भी मानते हैं। आर्य समाजी वेदों को ऋषियों की रचना नहीं मानते बल्कि वे उन्हें परमेश्वर के वाणी मानते हैं और वे इसमें इतिहास नहीं मानते। वे वेदों में आई इतिहास की घटनाओं को अलंकार मानकर उसका अर्थ करते हैं।

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह का नज़रिया इन दोनों से थोड़ा सा अलग था। उनकी नज़र में वेद का अर्थ 'ज्ञान' था। वह कहते थे कि वैदिक साहित्य में ज्ञान की बात जहां भी है, वह सब मेरी नज़र में वेद है। चाहे वह बात पुराणों में हो या गीता में हो। एक दिन हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने मेरे सामने गीता का वह भाग पढ़ा, जिसे गीता में पांचवा वेद कहा गया है। हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने कहा कि इतना हिस्सा भी वेद है। 

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह बार बार कहते थे कि वेद में कलामे इलाही है लेकिन वेद कलामे इलाही नहीं है।

इसकी मिसाल आप ऐसे समझ सकते हैं कि अल्लामा इक़बाल रहमतुल्लाहि अलैह और कई मुस्लिम शायरों के कलाम में क़ुरआन की आयतें आई हैं। जिसे हम कहते हैं कि इनकी शायरी में कलामे इलाही है लेकिन उन शायरों की शायरी कलामे इलाही नहीं होती। इस बारीक फ़र्क़ को बहुत अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है।

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह यह भी कहते थे कि हम यह भी नहीं कह सकते कि वेदों में कलामे इलाही लफ़्ज़न है या माअ़नन है (यानी वेदों में कलामे इलाही के शब्द हैं या उसका भाव हैं।)

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