दोस्तो, मैंने फ़ेसबुक पर 5 दिन पहले वर्क रामपुर के 'वेदों को ईशवाणी मानने के खंडन में ' एक लेख लिखा था। जिसे आप मेरे ब्लाग पर नीचे दिए लिंक पर देख सकते हैं:
https://vedkalamullahnahi.blogspot.com/2024/05/blog-post_10.html
इस पर मेरी फ़ेसबुक फ़्रेंडलिस्ट में मौजूद मुहम्मद वसीम अहमद भाई ने एक कमेंट किया। जिसमें उन्होंने कुछ नहीं लिखा बस एक ब्लाग का कमेंट पेश किया।
जिसके केंद्रीय विषय पर मैंने फ़ेसबुक पर एक दूसरा कमेंट लिखा, जोकि उसके शीर्षक से ज़ाहिर हो रहा है:
मैंने वर्क रामपुर के इस नज़रिए के रद्द में एक लेख लिखा था कि 'वेद प्रथम ईशवाणी है।'
मैंने लिखा था कि 'वेदों में क़ुरआन जैसी तौहीद नहीं है '
जिसके समर्थन में कई कमेंट आए।
Mohmmad Aman Khan भाई ने किसी Md Vaseem Ahmed को मेंशन किया और उन्होंने अपने कमेंट में कुछ नहीं लिखा। वह एक ब्लाग पर लिखे गए एक लेख का केवल लिंक चिपका गए। जो किसी ने वर्ष 2021 में लिखा है क्योंकि मैं कई वर्षों से यह बात रिपीट कर रहा हूँ। जिसे पढ़कर लोगों ने सवाल किए होंगे।
मैं नहीं जानता कि वसीम अहमद भाई कौन हैं लेकिन उन्होंने जिस लेख का लिंक चिपकाया है, उसके लेखक का नाम ब्लाग में नहीं है और लेख का शीर्षक एक सवाल को बनाया गया है:
'क्या वेदों में ईशवाणी और सनातनी परंपरा में एकेश्वरवादी धारणा कभी नहीं रही?'
मैं मुहम्मद वसीम अहमद भाई से कहना चाहता हूँ कि वास्तव में यह मेरा सवाल ही नहीं है।
1. क्या वेदों में ईशवाणी कभी नहीं रही?
यह मेरा सवाल नहीं है। हो सकता है कि वेदों में ईशवाणी 5 हज़ार साल पहले रही हो। हमारा कहना है कि वेदों में ईशवाणी इस समय नहीं है, जिस समय में हम ज़िंदा हैं।
2. क्या सनातनी परंपरा में एकेश्वरवादी धारणा कभी नहीं रही?'
यह भी मेरा सवाल नहीं है। सनातनी परंपरा एक बड़े काल खंड पर फैली हुई है। उसमें कभी क्या रहा होगा?
यह मेरा सवाल नहीं है।
हमें सनातनी परंपरा के ग्रंथों में जो कुछ आज मिलता है, मेरा सवाल उससे संबंधित है।
इस लेख में कबीर दास जी आदि के विचारों को सनातनी परंपरा से जोड़ा गया है तो मेरा कहना यह है कि कबीरदास जी एक मुस्लिम थे। उनके विचारों में तौहीद मिलती है तो यह स्वाभाविक है। मुस्लिम शासनकाल में किसी मुस्लिम के विचारों में तौहीद मिल जाए और सनातन धर्म की शूद्र जाति के लोग उस मुस्लिम के अनुयायी बन जाएं तो उस मुस्लिम के विचार कैसे सनातन धर्म की परंपरा हो जाएंगे?
और अगर कबीर दास जी के विचारों को सनातनी परंपरा मान भी लें तो सनातन धर्मी विद्वान कबीर दास जी की शिक्षा को अद्वैतवाद के दर्शन के साथ प्रस्तुत करेंगे, जो कि 'वहदतुल वुजूद' का फ़लसफ़ा है, तौहीद नहीं है।
यही मुग़ालिता (भ्रम) अलबेरूनी को लगा होगा। वह अद्वैतवाद को तौहीद समझा होगा और उसने अपनी किताब 'किताबुलहिंद' में लिख दिया कि "यहाँ दार्शनिक, मोक्ष मार्ग पर चलने वाले, ब्रह्मविद्या अध्यनन करने वाले गण एकेश्वरवादी हैं, मूर्तिपूजा से दूर हैं और अशिक्षित जनता ही मूर्तिपूजा में संलिप्त है।"
अलबेरूनी कुछ ऐसे अद्वैतवादी सनातनी विचारकों से मिला होगा, जो मूर्तिपूजा नहीं करते होंगे। आज भी सनातनी विचारकों में मूर्तिपूजा न करने वाले कुछ विचारक मिल सकते हैं। अलबेरूनी ने सनातन धर्म के किस संप्रदाय के विद्वानों के विषय में ऐसा लिखा है, यह उसने स्पष्ट नहीं किया है क्योंकि भारत में 10वीं शताब्दी में सनातन धर्म के विद्वान मूर्तिपूजा करते थे, यह बात स्वयं सनातन धर्म के ग्रंथों से ही सिद्ध होती है। इसलिए अलबेरूनी की बात को कुछ गिने-चुने विशिष्ट सनातनी विचारकों तक ही सीमित समझना चाहिए, जो उसके संपर्क में आए होंगे।
बात फिर वही है कि हम कबीरदास जी और अलबेरूनी जैसे मुस्लिमों के साहित्य से तय नहीं करेंगे कि सनातन धर्म में एकेश्वरवाद है बल्कि सतातन धर्म में जो है, वह सनातन धर्म के ग्रंथों से पता लगाएंगे।
इस लेख के अज्ञात लेखक ने लेख के अंत में एक बड़ा दिलचस्प शीर्षक दिया है:
'अल्लामा सय्यद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब पर राय'
और लिखा है कि
'तारिक़ साहब ट्रांस की हालत में रहते हैं, हम और आप उनका इन चीज़ों में मुकाबला नहीं कर सकते।'
भाई, ट्राँस की हालत में रहना बहुत ईज़ी है। बस इसका तरीक़ा पता होना चाहिए कि ख़ुद को ट्राँस की हालत में कैसे रखना है। हरेक आम आदमी भी इस समय ट्राँस में है, बस उसे पता नहीं है कि वह ट्राँस में है। जब आदमी कोई मूवी देखता है या किसी आलिम का लेक्चर सुनता है, तब वह आदमी ट्राँस की हालत में होता है। जब कोई आदमी किसी नेता या किसी धर्मगुरु की विचारधारा को फ़ोलो करता है, तब वह उस समय ट्राँस में ही होता है। वर्क रामपुर के जितने भी कार्यकर्ता अल्लामा तारिक़ साहब को फ़ोलो करते हैं, वे सब उनकी ट्राँस में ही तो हैं, बस वे जानते नहीं।
ट्राँस की हालत में रहने में उक्त विद्वान ब्लाग-लेखक यक़ीनन अल्लामा का मुक़ाबला नहीं कर सकता होगा लेकिन उसने यह कैसे समझ लिया कि उसके पाठक भी उसी की तरह होंगे। यह एक बात हुई और दूसरी बात यह है कि ट्राँस की हालत में रहने से किसी विद्वान का कथन सत्य नहीं हो जाता।
मैं ख़ुद जब चाहूँ, ट्राँस की हालत में चला जाऊँ और जब चाहूँ, उस ट्राँस से निकल आऊँ लेकिन मैं कभी नहीं कहूँगा कि मैं ट्राँस की हालत में रहता हूँ, इसलिए मेरी बात सत्य मान ली जाए। मुझे अपनी बात की सत्यता के पक्ष में प्रमाण देना होगा क्योंकि ट्राँस की हालत में मैंने जो देखा और महसूस किया, वह किसी अन्य के लिए कोई प्रमाण नहीं है। ट्राँस की हालत में हमेशा सत्य और तथ्य ही दिखते हैं, ऐसा दीन और मनोविज्ञान दोनों ही नहीं मानते और ट्राँस की हालत में पता चली किसी बात को मैं ख़ुद तब तक नाक़ाबिले ऐतबार मानता हूँ, जब तक कि बाहरी हक़ीक़त से उसकी प्रामाणिकता सिद्ध न हो जाए।
मेरी सलाह है कि अल्लामा तारिक़ साहब के लिए अंग्रेज़ी शब्द ट्राँस (trance) का इस्तेमाल न किया जाए क्योंकि इस शब्द से न हिंदू प्रभावित होता है और न ही मुस्लिम। इसके बजाय हिंदू 'समाधि' शब्द से प्रभावित होता है और मुस्लिम 'जज़्ब' शब्द से क्योंकि मुग़ल काल में बड़े सिद्ध व्यक्तियों के लिए ये शब्द बोले गए हैं और ये शब्द सुनते ही मन में तुरंत आदर जागता है जबकि ट्राँस शब्द सुनते ही व्यक्ति के सम्मोहित (hypnotized) होने का ख़याल आता है।
उपरोक्त लेख पर मुहम्मद वसीम अहमद भाई ने कुछ कमेंट किए और मैंने उनके जवाब दिए। जिन्हें आप नीचे देख सकते हैं:
Md Vaseem Ahmed: अस्सलामुअलैकम अनवर साहब। आपको अक्सर पढ़ता हूँ और सीखता रहता हूँ। आप को मैं वाकई उस्ताद के दर्जे पर रखता हूँ। मगर आप ने यंहा उस ब्लॉग की बहुत सी बातें, सबूत और तर्क यकीनन इग्नोर कर दिए हैं। या तो आप ने जल्दी करी है पढ़ने में या फिर आप उनका जवाब नहीं देना चाहते।
पहली बात जनाब, यह अर्ज है कि आपने उस आर्टिकल की हैडिंग को ही बुनियाद बना लीया है, जबकि उसकी हैडिंग किसी खास मक़सद के तहत लिखी हुई है। मगर उस के अंदर हर वो सवाल का जवाब मौजूद है जो आपने उठाये थे। आप उन जवाबात का खंडन या रद्द करने की बजाए, उन्हें इग्नोर करके सिर्फ हैडिंग पर ही फ़ोकस कर रहे हैं, ज़ाहिर है इसके पीछे आपकी कोई खास वजह होगी।
उस आर्टिकल में न सिर्फ इसके सबूत दिए गए हैं कि पहले भी वेदादि और भारतीय सभ्यता में एकेश्वरवाद की धारणा रही है बल्कि ये भी सिद्ध किया गया है कि ये आज भी मौजूद है और हमेशा रही है।
दूसरी बात, हज़रत यह है कि वंहा इतिहास, हिन्दू ग्रंथो, विद्वानों के कई सबूत दिए गए हैं जिनसे यही बात सिध्द होती है। और एक उदाहरण अलबेरुनी का दिया गया है। आपने बाकी ऐसे सभी सबूतों को छोड़कर सिर्फ और सिर्फ अलबेरुनी पर ध्यान दिया। ज़ाहिर इसके पीछे भी आपका कोई खास मक़सद होगा जैसी अपनी बात को सबूतों के खिलाफ जा कर हर हाल में सिद्ध करना।
इसी तरह भक्ति काल के कई कवियों का नाम का वंहा ज़िक्र है जो अधिकतर गैर मुस्लिम ही थे, बल्कि जिन भक्तिकाल काल के कवियों आदि के नाम नहीं हैं, यकीनन आप उन्हें भी जानते ही होंगे। माशाअल्लाह आपका इल्म बहुत अच्छा जो है। मगर आपने सिर्फ कबीर की बात को ही पकड़ा और बाकियों को फिर से इग्नोर कर दिया। यंहा भी कोई वजह होगी। जबकि ये दोनों नाम जो दिए हैं, वो इसलिए दिए गए हैं कि मुस्लिम कम से कम इनके विचारों को तो मानेंगे की वेदों में क्या है, गैर मुस्लिम की तो मानने से रहे।
तीसरी बात, मोहतरम उस्ताद, यह है कि बात अद्वैतवाद की नहीं हो रही थी। मूल आस्थाओं में परिवर्तन और बिगाड़ तो समय के साथ आ ही जाता है चाहे मुसलमान ही क्यों न हो। सवाल था कि वेद और यंहा की संस्कृति में दयानन्द जी पहले एकेश्वरवाद था या नहीं? वेदों और अन्य ग्रंथो में यह था, जो ब्लॉग ने सिद्ध कर दिया और अद्वैतवाद वेदों में सीधा सीधा मौजूद ही नहीं लगता है, यह तो बाद में दर्शन की उपज है। ज़ाहिर है बाद में बिगाड़ हुआ है।
अंतिम बात, तारिक साहब पर भी वंहा पर बहुत सी बातें रखी हुई हैं, आपके केवल ट्रांस वाली बात को मुद्दा बना लिया है और बाकी छोड़ दिया है। इस तरह पिक एंड चूस तरीके को इख्तियार करके आप एक इल्मी जवाब देने की बजाए विषय को गोल गोल घूमा रहे हैं। आप एक एक दलील को उठा कर उनका ''सबूतों" के साथ जवाब देते तो ये चर्चा आगे बढ़ती। चर्चा का स्तर उठाने की कोशिश की जाती तो बेहतर होता।
शुक्रिया। उम्मीद है आपसे आगे भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
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Dr. Anwer Jamal: Md Vaseem Ahmed bhai,
व अलैकुम अस्सलाम,
लेख का शीर्षक पूरे लेख को व्यक्त कर रहा था और उसमें वही बात सिद्ध की गई है, जोकि शीर्षक में है। इसलिए मैंने लेख के शीर्षक पर ही यह छोटी सी पोस्ट लिखी है। हालांकि यह पोस्ट भी फ़ेसबुक पाठकों के मिज़ाज के हिसाब से लंबी है।
आपने लिखा है कि 'आप एक-एक दलील को उठाकर उनका सुबूत देते तो यह चर्चा आगे बढ़ती।'
भाई, यह काम आपको मेरे फ़ेसबुक लेख पर करना था लेकिन आपने चर्चा कुछ नहीं की और एक ब्लाग पर लिखे लेख का महज़ एक लिंक देकर चले गए। आपने उस लिंक के साथ भी कुछ नहीं लिखा।
मैंने अपने लेख में केवल एक बात पेश की है और वह यह है कि सनातनी वेदभाष्य सायण के वेदभाष्य में क़ुरआन जैसी या स्वामी दयानंद के वेद-भाष्य जैसी तौहीद नहीं है, जोकि मौजूद वेदभाष्यों में सबसे अधिक प्राचीन है और उसे सभी शंकराचार्य और सभी सनातनी वेद-भाष्यकार मानते हैं।
अब मैं आपको इसी एक विषय पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित करता हूँ। अब आप उस लेख से मेरे इस कथन का खंडन उठाकर यहां लिख दें। इसमें अलबेरूनी और भक्तिकाल के कवियों का प्रमाण न दें क्योंकि बात केवल वेदों के विषय में हो रही है। इसलिए आप अपनी दलीलों को केवल 'वेद' तक सीमित रखें।
एक बार फिर दोहरा दूँ कि अल्लामा तारिक़ साहब या आप अपने अपने व्यक्तिगत स्तर पर वेद को ईशवाणी मानें, वह आपका अपना अक़ीदा है लेकिन जब वह या आप वेद के प्रथम ईशवाणी (अल्लाह का कलाम) होने का प्रचार करेंगे तो हम आपसे उसका प्रमाण माँगेगे।
इसलिए चर्चा का विषय केवल 'वेद' है।
मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि आपके अंदर कुछ सीखने का जज़्बा है।
शुक्रिया।
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Md Vaseem Ahmed: Anwer Jamal Khan हजरत देखिए, सायण के ईश्वर पर विचार। सायण और दयानंद - पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय।
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Dr. Anwer Jamal: Md Vaseem Ahmed bhai,
यह ग्रंथ सायण ने नहीं लिखा है तो ये सायण के विचार कैसे हुए?
ये आर्य समाजी पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय के विचार हैं।
उसका दावा है कि सायण वेदों को ईश्वरोक्त मानता था और स्वत: प्रमाण मानता था।
पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय जी ने सायण की मान्यता का कोई प्रमाण नहीं दिया है कि सायण ने ये दोनों बातें किस ग्रंथ में लिखीं?
पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय जी को कैसे पता चला कि सायण ये दोनों बातें मानता था?
आप मुझे सायण के विचार सायण के ग्रंथ में दिखाएं।
यह हुआ आपके इस कमेंट का जवाब
लेकिन मैं फिर आपको याद दिला दूँ कि
मेरा सवाल सायण के भाष्य में क़ुरआन जैसी या दयानंदी वेदभाष्य जैसी तौहीद दिखाने से संबंधित है।
यदि सायण की दृष्टि में वेद ईश्वरोक्त है तो उसमें रब ने अपने नाम का परिचय दिया होगा और उसमें अपनी तौहीद अवश्य ही बयान की होगी।
वर्ना सनातनी आचार्य तो श्रीमद्भागवत महापुराण और गीता से लेकर कई ग्रंथों तक को ईश्वरोक्त मानते हैं। उनके किसी ग्रन्थ को ईश्वरोक्त मानने से मैं उनकी मान्यता ग्रहण नहीं करूंगा, जब तक उस ग्रंथ में ईशवाणी होने के चिन्ह और प्रमाण नहीं मिलेंगे। जैसे कि क़ुरआन में मिलते हैं।
मुहम्मद वसीम अहमद भाई, देखिए,
आपने केवल 13 शब्द लिखे और एक आर्य समाजी पंडित की किताब के पेज की इमेज दे दी। इस तरह चर्चा नहीं होती।
मेरा सवाल क्या है और आप जवाब क्या दे रहे हैं?
और आपने एक आर्यसमाजी के ग्रंथ से वही आर्यसमाजी मान्यता फिर मेरे सामने क्यों रख दी, जिस पर मेरा ऐतराज़ है?
मैं यह कह रहा हूँ कि
कोई वर्की कार्यकर्ता मुझे सायण के वेदभाष्य में रब की तौहीद के 4-5 सूक्त ही दिखा दे लेकिन आप वह दिखाने के बजाय मुझे एक आर्यसमाजी पंडित का ग्रंथ दिखा रहे हैं कि यह देखो, उसने यह लिखा है।
पहले आप मेरे सवाल को ठीक से समझ लें कि मैं क्या पूछ रहा हूँ?
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Md Vaseem Ahmed: Anwer Jamal Khan अनवर साहब। मुझे लग ही रहा था कि आप गंगा गप्रसाद को आर्य समाजी कहकर उसका कोई तथ्य नहीं मानेंगे। इसलिए मैं उस किताब से कोई तथ्य अब नहीं रख रहा। हालांकि अगर आप वो किताब पढ़ेंगे तो जान जायँगे कि सायण विरोधी होने के बावजुद एक आर्य समाजी गंगा प्रसाद ने सायण के बारे में बनाये गए कई आर्य समाजी भ्रम स्वयं तोड़े हैं जैसे कि एक तो यही है कि सायण ने वेदार्थ करने के लिए निरुक्त को आधार नहीं बनाया था। और हम सभी जानते हैं कि निरुक्त में ईश्वर की स्पष्ठ धारणा मौजूद है जैसे कि ब्लॉग पहले ही संदर्भ दिए हुए हैं। खैर मतलब ये था कि इनके सिर्फ आर्य समाजी होने से इनके प्रमाण खारिज नहीं हो जाते। नहीं तो फिर मुझे पहले ही कॉमेंट में आपके सारे वेदों पर दिये तर्क खारिज कर देने चाहिए थे क्योंकि आप एक मुस्लिम हो, न कि हिन्दू।
इसलिए अब मैं आपको एक सनातनी संस्कृत विद्वान डॉ रामप्रकाश वर्णी की किताब, 'आचार्य सायण और स्वामी दयानंद सरस्वती की वेद भाष्यभूमिकायाएं' से कुछ बातें और संदर्भ दे रहा हूँ। आप खुद इनसे संदर्भ लेके मूल संस्कृत में ढूंढ लीजिए। या इनकी मान लीजिये क्योंकि ये भी संस्कृत और वेद विद्वान हैं, शायद आपसे बड़े भी। इसी किताब में एक और तथ्य ये भी लिखा है कि यजुर्वेद (17:91) के जिस मंत्र में अनेकों अंगों वाले वृषभ का उल्लेख है, उस वृषभ को रामानुज (10-11वीं सदी) ने ईश्वर माना है।
दूसरी बात आप जो बार बार सायण के वेदार्थ की ओरोजिनल फ़ोटो मांग रहे हैं। आप जानते ही होंगे कि सायण वेदार्थ संस्कृत में है और विशुध्द हिंदी में उनका पूर्ण अनुवाद मिलना बेहद मुश्किल है। जगह जगह कुछ मंत्रों के अनुवाद तो मिल जाते हैं।अगर आप संस्कृत जानते हैं तो नेट पर संस्कृत सायण भाष्य उपलब्ध है। आप ये सब वंहा देख लीजिए।
मगर हम जैसों को तो सीधा उनके हिंदी अनुवाद की बजाय अन्य विद्वानों की उनके बारे में किये गए लेखन, किताबो से जानकारी लेनी पड़ती है। और ऐसी कई जानकारी ब्लॉग में पहले से ही संदर्भ के साथ मौजूद है। अब या तो आप यह कहना चाह रहे हैं कि आप इन सभी लोगों से बड़े विद्वान या संस्कृत ज्ञाता हैं या फिर आप ये तथ्य किसी भी हाल में मानना ही नहीं चाहते।
रही बात सूक्तों कि तो ये दावा तो हम में से किसी ने किया ही नहीं है कि पौराणिकों के वेदार्थों में ऐसे अनेकों एकेश्वरवादी सूक्त हैं। मैंने पहले भी लिखा है, ऐसे मंत्र हैं, मगर कम मात्रा में। हालांकि दयानंद जी ने हर सूक्त ही ईश्वर से जोड़ा है, पर वो आप मानेंगे नहीं। ये तो ऐसा ही जैसे कोई कहे कि मुझे हलवे में से चीनी निकाल कर दिखाओ।
आपका मूल विषय यही था कि वेदों में एक ईश्वरवाद नहीं है और दयानंद से पहले यंहा यही भावना विद्यमान भी नहीं थी। ये दोनों ही सवाल के जवाब वही हैं कि ये धारणाएं थी मगर कम। बात आपको कुबूल करवाने की थी ही नहीं। केवल ये सिध्द करना था कि एकेश्वरवाद यंहा पर कोई नई बात नहीं, हां मगर ये आम जन में आम बात नहीं थी, पिछली कई सदियों से।
///
Dr. Anwer Jamal: Md Vaseem Ahmed भाई,
मुझे ताज्जुब है कि आप इसी पोस्ट पर अपने एक कमेंट में मुझे 'उस्ताद' के दर्जे पर रखते हैं और दूसरे कमेंट में आप मुझ पर व्यक्तिगत हमला करते हैं और कहते हैं कि
'अब या तो आप यह कहना चाह रहे हैं कि आप इन सभी लोगों से बड़े विद्वान या संस्कृत ज्ञाता हैं या फिर आप ये तथ्य किसी भी हाल में मानना ही नहीं चाहते।'
क्या मैंने कभी कहा है कि मैं वेदों के पंडितों से बड़ा वेद का ज्ञाता हूँ?
इस तरह की कोई बात मैंने आपके बारे में नहीं कही है क्योंकि मैं केवल विषय पर बात करना चाहता हूँ और मेरा विषय यह है कि स्वामी दयानंद जी ने वृषभ (बैल) आदि चीज़ों के नामों को परमेश्वर के नाम मानकर अपने वेदभाष्य में तौहीद दर्शा दी है जोकि सायण के भाष्य में और उस पर आधारित ग्रिफ़िथ और पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वेदभाष्य में तौहीद नहीं है।
अब यदि आप वेदों में तौहीद मानते हैं तो आप मुझे सायण के भाष्य में दिखा दें। वह संस्कृत में है तो भी कोई परेशानी नहीं है। मैं उसे अपने संस्कृत के गुरु जी से पढ़वाकर समझ लूंगा लेकिन आप मुझे उसका स्क्रीन शाट दे दें ताकि मुझे पता चले कि वर्क रामपुर की नज़र में सायण के वेदभाष्य में इन मंत्रों में तौहीद है। इसके अलावा आप ग्रिफ़िथ और पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वेदभाष्य में भी तौहीद के मंत्र दिखा सकते हैं। ये क्रमश: इंग्लिश और हिन्दी में उपलब्ध हैं।
आप मुझे सायण, ग्रिफ़िथ और पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी के वेभाष्यों में तौहीद के मंत्र दिखाने के बजाय किसी लेखक की किताब के पृष्ठ दिखा रहे हैं, जोकि वेदभाष्य नहीं है।
आपने लिखा है कि एक सनातनी संस्कृत विद्वान डॉ० रामप्रकाश वर्णी की किताब, 'आचार्य सायण और स्वामी दयानंद सरस्वती की वेद भाष्यभूमिकायाएं' में एक और तथ्य यह भी लिखा है कि यजुर्वेद (17:91) के जिस मंत्र में अनेकों अंगों वाले वृषभ का उल्लेख है, उस वृषभ को रामानुज (10-11वीं सदी) ने ईश्वर माना है।
अब मुझे इस पर 2 ऐतराज़ हैं:
1. मुझे लगता है कि वृषभ को रामानुज (10-11वीं सदी) ने ईश्वर नहीं माना है। यदि उसने वृषभ को ईश्वर माना है तो उसके रचित ग्रंथ का प्रमाण प्रस्तुत करें।
2. और यदि इस सनातनी विद्वान की बात पर अनदेखे विश्वास करके मान लें कि 'यजुर्वेद (17:91) के जिस मंत्र में अनेकों अंगों वाले वृषभ का उल्लेख है, उस वृषभ को रामानुज (10-11वीं सदी) ने ईश्वर माना है।'
...तो कृपया आप मुझे यह बताएं कि क्या आप और वर्क रामपुर भी वृषभ को ईश्वर मानते हैं?
सनातनी पंडित तो कछुआ, मछली और वराह (सुअर) को भी ईश्वर मानते हैं। ऐसे में रामानुज वृषभ को ईश्वर मान सकते हैं। क्या वर्क रामपुर के मुस्लिम विद्वान भी वृषभ को ईश्वर या ईश्वर का नाम मानते हैं?
कृपया मेरे इस कमेंट को ध्यानपूर्वक पढ़ें और बिना व्यक्तिगत हमला किए मेरे कमेंट का अधिकारिक इल्मी उत्तर दें।
///
Md. Md Vaseem Ahmed: Anwer Jamal Khan मैं माज़रत चाहूँगा अगर आपका दिल दुखाया हो तो। मैं तो बस यह कहना चाहता था हज़रत कि एक से बढ़कर एक विद्वानों के संदर्भ मैं आपको इस पोस्ट पर दे चुका हूँ और उस ब्लॉग में तो इससे भी ज्यादा दिए हुए हैं जो यह सिद्ध कर रहे हैं कि सायण एकश्वरवाद की धारणा से अनजान नहीं थे और उन्होंने भी बहुत से वेदों में आए नामों को ईश्वर का नाम माना है, वैसे ही जैसे यास्क आदि अनेकों ऋषियों ने माना है। मगर उन सभी विद्वानों को रद्द करते हुए आप अपनी बात पर अटल हैं। जाहीर है कि आप उन्हें झूठा मान रहे हैं या अपने से छोटा विद्वान। सिर्फ आर्य समाजी होने के नाते उनके विद्वानों को भी ठुकरा रहे हैं जबकि आप खुद एक मुस्लिम हो कर सनातनी मान्यतों पर अपने विचार प्रचारित कर रहे हैं जबकि आप से पहले ये अधिकार अगर किसी गैर सनातनी को देना ही हैं तो वो आर्य समाजी तो हो सकते हैं मगर कोई मुस्लिम कतई नहीं। इसलिए मैं भी उन्ही के विचार रख रहा हूँ।
वृषभ वाला उदाहरण आप फिर से गलत समझे हैं। वो इसलिए रखा था कि वह यह सपष्ट रूप से सिद्ध कर रहा है कि ईश्वर कि मान्यता और वैदिक नामों को ईश्वर के नाम मानने की मान्यता स्वामी दयानन्द से पहले ही यंहा चलन में है। इस पर विस्तृत रूप से ब्लॉग में दिया हुआ है। वृषभ को या किसी अन्य नाम को ईश्वर का नाम वर्क वालों ने माना या नहीं, ये तो प्रश्न ही कभी नहीं था। और जो जो वैदिक नाम ईश्वर के माने जाते हैं सनातनी विद्वानों द्वारा, वो ब्लॉग में हैं और यंहा भी है ऊपर। वर्क को खमख्वाह बीच में ला रहे हैं। वर्क पर बात शुरू नहीं हुई थी। वर्क से जोड़ कर बात करने से चर्चा, इल्मी चर्चा नहीं रहेगी।
बात यंहा से शुरू हुई थी कि आपने कहा था कि वेदों में और स्वामी दयानन्द से पहले एकश्वरवाद सनातन या हिन्दू धर्म में था ही नहीं कभी। बाकी मैं कोई वर्क का विद्वान नहीं।
रही बात श्रीराम शर्मा जी के वेदार्थ कि तो उससे प्रमाण मैं आपको जल्दी ही देता हूँ, समय मिलने पर। बल्कि आप कहे तो सायण आधारित अन्य वेद विद्वानों के भी ऐसे ही प्रमाण दे दूंगा। मगर मुझे लगता नहीं आप मानेंगे। क्योंकि इससे पहले इतने सबूत दिए जा चुके हैं ब्लॉग में और यंहा भी, आपने उनको ही नहीं माना तो फिर आगे क्या ही आशा रखी जाए। धन्यवाद।
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Dr. Anwer Jamal: Md Vaseem Ahmed भाई, सायण एक ईश्वर की मान्यता से अनजान नहीं रहे होंगे।
मैं आपकी बात मानता हूँ लेकिन सारी बात यह है कि सायण किसे ईश्वर मानता था?
मैं आपकी यह शिकायत भी दूर कर देता हूँ कि मैं आपके दिए सनातनी विद्वान की बात नहीं मान रहा हूँ। आपने मुझे एक सनातनी संस्कृत विद्वान डॉ० रामप्रकाश वर्णी की किताब, 'आचार्य सायण और स्वामी दयानंद सरस्वती की वेद भाष्यभूमिकायाएं' से यह बताया था कि यजुर्वेद (17:91) के जिस मंत्र में अनेकों अंगों वाले वृषभ का उल्लेख है, उस वृषभ को रामानुज (10-11वीं सदी) ने ईश्वर माना है।
मैंने आपकी बात मान ली और मैंने यह भी मान लिया कि
'यजुर्वेद (17:91) के जिस मंत्र में अनेकों अंगों वाले वृषभ को रामानुज ईश्वर मानता था।'
मैं भी यही मानता हूँ कि यजुर्वेद 17:91 में वृषभ को ईश्वर माना गया है।
हम सभी जानते हैं कि सनातन धर्म में गाय में सभी देवताओं का निवास माना जाता है। ऐसे में सनातनी पंडित वेद में वृषभ (बैल) को ईश्वर मान लें तो यह स्वाभाविक है।
आपने जिस सनातनी ज्ञानी का हवाला पेश किया है। मैंने उसे मान लिया है कि यजुर्वेद 17:91 का यही आशय या अर्थ होगा जो सनातनी पंडित बता रहे हैं।
अब मैं आपसे यह पूछता हूँ कि 'अनेक अंगों वाले वृषभ को ईश्वर मानने से वेदों में एकेश्वरवाद (तौहीद) कैसे सिद्ध होती है?
क्या वर्क रामपुर के इमाम और मुबल्लिग़ मानते हैं कि
'अनेक अंगों वाले वृषभ को ईश्वर मानने से वेदों में एकेश्वरवाद (तौहीद) सिद्ध होती है?'
क्या एक मुस्लिम मानता है कि ईश्वर अनेकों अंगों वाला वृषभ होता है?
क्योंकि मैं आपको नहीं जानता। आप अपने फ़ेसबुक अकाउंट पर वर्क रामपुर की ब्रांच के कार्यक्रमों को लाइव दिखा चुके हैं। जिससे मुझे अंदाज़ा हुआ कि आप वर्क रामपुर के मेंबर हैं।
आपका पहला कमेंट भी मुझे उस पोस्ट पर मिला था, जो मैंने वर्क रामपुर के इस नज़रिए के रद्द में लिखी थी कि 'वेद ईशवाणी है और वेद धर्म का प्रथम स्रोत हैं।'
वेद के विषय में वर्क रामपुर के नज़रिए के पक्ष में ही आप मुझे प्रमाण दे रहे हैं तो वर्क रामपुर बीच में नहीं आ रहा है बल्कि उसी के नज़रिए पर मैं और आप बात कर रहे हैं। मैं उसका मेंबर नहीं हूँ लेकिन शायद आप उसके प्रशिक्षित मेंबर हैं।
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