वेदों में क़ुरआन जैसी तौहीद नहीं है
वेदों में क़ुरआन जैसी तौहीद नहीं है
वर्क रामपुर एक संगठन है, जिसके कार्यकर्ता मानते हैं कि वेद प्रथम ईशवाणी है यानी पहला कलामुल्लाह है। वे फ़ेसबुक आदि सोशल वेबसाइट्स पर यह लिखते रहते हैं।
कलामुल्लाह की पहचान यह है कि जो कलामुल्लाह होता है, उसमें अल्लाह अपनी तौहीद को बार-बार बयान करता है। चाहे बाद में उसमें लोग कितनी भी मिलावट कर दें, उसके बावुजूद असल तौहीद उसमें से मिटती नहीं है। दूसरी बात यह है कि उस कलाम में रब का ज़ाती नाम मौजूद होता है। ज़ाती नाम भी रब की कुछ सिफ़ात का पता देता है लेकिन वह एक ख़ास नाम होता है। जो ख़ास नाम दूसरे सिफ़ाती नामों के मुक़ाबले रब अपने अस्तित्व के लिए अपने कलाम में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करता है, उसे ज़ाती नाम कहते हैं। रब के वुजूद का परिचय देने में बाक़ी सिफ़ाती नाम इस ख़ास नाम पर निर्भर करते हैं लेकिन यह ख़ास नाम रब के अस्तित्व की तरफ़ ध्यान दिलाने में किसी दूसरे सिफ़ाती नाम का ज़रूरतमंद नहीं होता।
वेदों में ये दोनों ही बातें नहीं पाई जातीं। वेदों का सायण का भाष्य सबसे पुराना है। जिसे देश-विदेश के सभी वेद के विद्वान मानते हैं। ग्रिफ़िथ ने अपना भाष्य सायण के वेदभाष्य के आधार पर किया था। उसमें 4-5 सूक्त के अनुवाद में भी रब की तौहीद नहीं है बल्कि वेदों में ऋषियों ने खुले तौर पर अग्नि, सूर्य, नदी, इन्द्र, मित्र और वरुण आदि देवताओं की स्तुति (हम्द) की है और उनसे अपनी ज़रूरतों के लिए प्रार्थनाएं की हैं।
इन्हीं देवी-देवताओं की उपासना उपनिषदों और पुराणों में है और सभी हिंदू विद्वान आज भी इन देवी-देवताओं की पूजा-उपासना-स्तुति करते हैं और उनसे अपनी मनोकामनाएं पूरी होने की प्रार्थनाएं करते हैं ।
इस संबंध में वेद के विद्वानों का यह कहना है कि अग्नि, सूर्य, नदी, इन्द्र, मित्र और वरुण आदि सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के अंश हैं। इसलिए उनमें से किसी देवी-देवता की उपासना करने पर भी एक ही परमेश्वर की उपासना होती है। इसे वैदिक विद्वान अद्वैतवाद कहते हैं।
ये अद्वैतवादी विद्वान 'एकम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति नेह ना नास्ति किंचन' कहते हैं तो इसका अर्थ भी वे अद्वैतवाद के संदर्भ में ही बताते हैं कि 'एक ब्रह्म ही है, दूसरा कुछ नहीं है। नहीं है, नहीं है, किंचित (ज़रा सा) भी नहीं है।' यानी जो कुछ नज़र आ रहा है, सब एक ही ब्रह्म के विभिन्न रूप हैं। इस प्रकार यह ब्रह्म सूत्र इसलाम के कलिमे 'ला इलाहा इल्लल्लाह' अर्थात 'कोई माबूद नहीं सिवाय अल्लाह के' के समान अर्थ नहीं देता। मुस्लिमों द्वारा इन दोनों वाक्यों का अर्थ एक बताना ग़लत है।
अंग्रेज़ी शासनकाल में स्वामी दयानंद जी ने अपना एक नया मत चलाया, जो अद्वैतवाद को नहीं बल्कि 'त्रैतवाद' को मानता है। त्रैतवाद में ब्रह्म, जीवात्मा और पदार्थ, इन 3 चीज़ों को अनादि माना जाता है। स्वामी दयानंद जी ने देखा कि बहुत से हिंदू तौहीद (एकेश्वरवाद) के कारण इसलाम में जा रहे हैं। स्वामी दयानंद जी ने हिंदुओं को इसलाम से रोकने के लिए कई काम किए। उनमें से एक बड़ा काम यह किया कि उन्होंने वेदों का नया भाष्य किया और उसमें उन्होंने अपने भावार्थ में एकेश्वरवाद भर दिया। इसका तरीक़ा उन्होंने यह निकाला कि उन्होंने अग्नि, सूर्य, नदी, इन्द्र, मित्र और वरुण आदि सभी देवी-देवताओं के नामों को परमेश्वर के नाम मान लिया। इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने 'अश्व' (घोड़ा) और वृषभ (बैल) आदि चीज़ों के नामों को भी परमेश्वर का नाम मान लिया। जिसका वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक 'सत्यार्थप्रकाश' के पहले चैप्टर में और 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' में किया है। इस तरह उन्होंने 100 से अधिक चीज़ों के नाम परमेश्वर के नाम मान लिए और उन्हें जहाँ ठीक लगा, उन्होंने वहाँ उन चीज़ों के नामों की जगह अपने वेदभाष्य में 'परमेश्वर' लिख दिया। इस तरह स्वामी दयानंद जी के वेदभाष्य में एकेश्वरवाद (तौहीद) भर गया। जोकि उनसे पहले न वेद में था और न वेदों के सबसे पुराने भाष्य, सायण के भाष्य में था। उनमें आज भी नहीं है।
स्वामी दयानंद जी की जीवनी में लिखा है कि उन्होंने अपना वेदभाष्य देश-विदेश के बहुत से वेद-विद्वानों के पास भेजा। सबने उनका वेदभाष्य अमान्य कर दिया।
वेद और पुराणों में एक ही धर्म आया है। स्वामी दयानंद जी ने जिस प्रकार वेदों का अनुवाद बदला, वह उसी प्रकार पुराणों का अनुवाद न बदल सके। इसलिए अगर वह पुराणों को मानते तो लोग जान लेते कि उनके वेदभाष्य और पुराणों में टकराव है। उनका वेदभाष्य एकेश्वरवाद बताता और पुराण बहुत से देवी-देवताओं की उपासना बताते। इस समस्या का निराकरण उन्होंने इस प्रकार किया कि उन्होंने पुराणों को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया।
जो मुस्लिम स्कालर बताते हैं कि वेदों में एकेश्वरवाद है, वे स्वामी दयानंद जी का वेदभाष्य ही पेश करते हैं क्योंकि वे सायण के वेदभाष्य से या उस पर आधारित ग्रिफ़िथ के वेदभाष्य से एकेश्वरवाद नहीं बता सकते। वेद के मुस्लिम स्कालर जानते हैं कि स्वामी दयानंद जी ने अग्नि, सूर्य, नदी, इन्द्र, मित्र और वरुण आदि सभी देवी-देवताओं के नामों को तथा अश्व' (घोड़ा) और वृषभ (बैल) आदि चीज़ों के नामों को परमेश्वर के नाम मानकर यह 'भावार्थ' किया है लेकिन वे वेदों में इस्लामी तौहीद साबित करने के लालच में अपने शिष्यों को यह बात नहीं बताते कि स्वामी दयानंद जी ने वेदों के अपने भाष्य में किस तकनीक से वह चीज़ दिखा दी, जो उनसे पहले के सायण के भाष्य में नहीं है।
वर्क रामपुर के मुस्लिम स्कालर्स ने यह बात आम कर दी है कि इसलाम सनातन धर्म है। वेदों में एकेश्वरवाद है और वेद प्रथम ईशवाणी है। वेद धर्म का प्रथम स्रोत है।
इसका अर्थ यह निकलता है कि वेद इसलाम धर्म का प्रथम स्रोत हैं।
यह एक बिल्कुल ग़लत बात है क्योंकि वेदों में एकेश्वरवाद नहीं है। इसलिए वेद ईशवाणी या अल्लाह का कलाम भी नहीं है और जो ग्रंथ अल्लाह का कलाम ही नहीं है, वह इसलाम धर्म का प्रथम स्रोत भी नहीं है।
वेदों में एकेश्वरवाद बताना, वेद को प्रथम ईशवाणी बताना और वेद को इसलाम धर्म का प्रथम स्रोत बताना मुस्लिमों के अक़ीदे को बिगाड़ना है। यह बड़े गुनाह का काम है। मेरा काम ख़बरदार करना है। वह मैंने कर दिया।
अब भी अगर किसी वर्की कार्यकर्ता का दावा हो कि वेदों में तौहीद है तो वह हमें सायण के वेदभाष्य में, ग्रिफ़िथ के भाष्य में या पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के भाष्य में वही एकेश्वरवाद दिखा दे, जो वे स्वामी दयानंद जी के वेदभाष्य से लेकर सबको दिखाते हैं।
एक मिसाल से यह बात समझें। क़ुरआने मजीद की सूरह इख़्लास में रब की तौहीद है तो अब इस सूरह का अनुवाद चाहे शाह रफ़ीउद्दीन साहब ने किया हो और चाहे उनके बाद अहले क़ुरआन फ़िरक़े के किसी आलिम ने किया हो, हरेक के अनुवाद में तौहीद ही मिलेगी क्योंकि असल टैक्स्ट में तौहीद है। अगर वेदों में तौहीद होती तो वह सायण के वेदभाष्य में भी ज़रूर मिलती, जोकि मौजूद वेदभाष्यों में सबसे प्राचीन वेदभाष्य है।
वर्क रामपुर के कार्यकर्ताओं ने ख़ुद वेद नहीं पढ़े हैं। इसलिए कई बार वे मेरी बात नहीं समझ पाते और जवाब में बार-बार अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब के वीडियोज़ के लिंक देते रहते हैं और उनमें अल्लामा साहब उसी आर्यसमाजी वेदभाष्य को और वेदों के बारे में आर्य समाजी अक़ीदे को दोहरा रहे होते हैं, जिस पर ऐतराज़ है।
वर्क रामपुर के कार्यकर्ताओं ने ख़ुद वेद नहीं पढ़े हैं और उनके पास ग्रिफ़िथ आदि का वेदभाष्य भी नहीं है। इसलिए वे ख़ुद मेरी बात चेक करने योग्य भी नहीं हैं। अब ऐसे में कई कार्यकर्ता अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब और मेरे ज्ञान की तुलना करने लगते हैं। अगर अल्लामा साहब का ज्ञान मुझसे अधिक है तो उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि वह ग़लती नहीं कर सकते या अगर मेरा ज्ञान उनसे कम है तो ऐसा नहीं है कि मैं ठीक बात नहीं कह सकता। ख़ास तौर से तब जबकि मैंने वेदों में तौहीद के विषय पर 26 साल से ज़्यादा रिसर्च की हो।
कई बार वर्क रामपुर का कोई कार्यकर्ता मेरा मज़ाक़ उड़ाने लगता है लेकिन मेरा मज़ाक़ उड़ाना मेरे सवाल का जवाब नहीं है और इस तरह की सिचुएशन को फ़ेस करने की मुझे पुरानी आदत है। मेरी बातें उन समझदार लोगों के लिए हैं, जो विचार कर सकते हैं।
'वेद धर्म का प्रथम स्रोत हैं और वेद में एकेश्वरवाद है।' यह वास्तव में स्वामी दयानंद जी और उनके आर्य समाज का अक़ीदा है। जो मुस्लिम स्कालर यह अक़ीदा फैलाते हैं, वे वास्तव में आर्यसमाजी अक़ीदे का प्रचार करते हैं और वे यह बात जानते नहीं।
#minimum_islah by Dr. Anwer Jamal
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