वेदों में तौहीद (एकेश्वरवाद) नहीं है Tauheed

मैंने फ़ेसबुक पर एक पोस्ट की। जिसमें मैंने लिखा था कि वेदों में तौहीद नहीं है। इस पर अहसान फ़िरोज़ाबादी भाई ने एक कमेंट किया:

तौहीद अर्थात ख़ुदा को उसकी ज़ात ओ सिफ़ात के साथ एक मानना।

ऋग्वेद में है—

य एक इत्। तमुष्टिहि।  (6-45-16)

अर्थात्, वह एक ही है। उसी को पूजो।

मा चिदन्यद् विशंसत। (8-1-1)

अर्थात्, किसी दूसरे को मत पूजो।

(उक्त दोनों मंत्रांशों के अनुवाद पं॰ गंगा प्रसाद उपाध्याय ने किये हैं।

                 —‘इस्लाम के दीपक’, पृ॰ 402, 385, अमर स्वामी प्रकाशन विभाग, ग़ाज़ियाबाद, उ॰प्र॰)

पतिर्बभृथासमो जनानामेको विश्वस्य भुवनस्यराजा। (ऋग्वेद 6-36-4)

अर्थात्, संसार का स्वामी जिसके समान और नहीं, वह (एक) सहायरहित प्रकाशमान राजा है।

(स्वामी दयानंद सरस्वती, ऋग्वेद भाष्य, पृ॰ 498)

भुवनस्य पस्यपतिरेभ एव

नमस्यो विक्ष्वीड्यः। (अथर्ववेद, 2-2-1)

अर्थात्, सब ब्रह्माण्ड का एक ही स्वामी, नमस्कार योग्य और स्तुति योग्य है। (पं॰ क्षेमकरण दास त्रिवेदी)

अथर्ववेद (2-2-2) में है—

एक एव नमस्यः सुशेवाः।

अर्थात्, वह एक ही है, जो नमस्कार और पूजा के योग्य है।

(पं॰ गंगा प्रसाद उपाध्याय, ‘इस्लाम के दीपक’, पृ॰ 386)

ईश्वर शरीर धरण नहीं करता। यजुर्वेद (40-8) में है—

स पर्य्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविर शुद्धमपापविद्धम्।

कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽ

अर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।

श्री नारायण स्वामी ने इस मंत्र का अनुवाद इस प्रकार किया है—

‘‘वह (ईश्वर) सर्वत्र व्यापक, जगदुत्पादक, शरीर-रहित, शारीरिक विकार-रहित, नाड़ी और नस के बंधन से रहित, पवित्र, पाप से रहित, सूक्ष्मदर्शी, मननशील, सर्वोपरि, वर्तमान, स्वयंसिद्ध, अनादि प्रजा (जीव) के लिए ठीक-ठीक कर्मफल का विधान करता है।’’  (‘‘वेद रहस्य’’, पृ॰ 94, वैदिक पुस्तकालय, वाराणसी, 1972)

डॉ॰ पं॰ श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने इसका अनुवाद इस प्रकार किया है—‘‘वह (ईश्वर) सर्वत्र गया हुआ है। वह देहरहित, स्नायुरहित है। वह व्रणरहित है। वह पवित्र और वीर्यवान है। वह पाप से विद्व (बिंधा) हुआ नहीं है। वह मन का स्वामी है, विचारशील है। वह सबसे श्रेष्ठ व विजयी है। वह अपनी शक्ति से स्थित है। करने योग्य कार्य वह करता रहता है।’’ (‘यजुर्वेद का सुबोध भाष्य’, पृ॰ 647)

अथर्ववेद (13-4-16 से 18, 20, 21) में उसकी अविभाज्यता का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख आया है—

न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते ।।16।।

न पंचमो न षष्ठः सप्तमो नाप्युच्यते ।।17।।

नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते ।।18।।

तमिदं निगतं सहः स एष एक एकवृदेक एव ।।20।।

सर्वे अस्मिन् देवा एकवृतो भवन्ति ।।21।।

दयानन्द सरस्वती जी इन मंत्रों का भावार्थ व्यक्त करते हुए लिखते हैं—

‘‘इन सब मंत्रों से यह निश्चय होता है कि परमात्मा एक ही है, उससे भिन्न कोई न दूसरा, न तीसरा, न कोई चैथा परमेश्वर है। (16) न पांचवां, न छठा, और न कोई सातवां ईश्वर है। (17) न आठवां, न नौवां, और न कोई दसवां ईश्वर है। (18) किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है। उससे भिन्न दूसरा कोई भी नहीं। ...वह अपने काम में किसी की सहायता नहीं लेता, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है। (20) उसी परमात्मा की सामर्थ्य में वसु आदि सब देव अर्थात् पृथ्वी आदि लोक ठहर रहे हैं और प्रलय में भी उसकी सामर्थ्य में लय होकर उसी के बने रहते हैं। (21)  (‘‘दयानन्द ग्रंथ-माला’’, (द्वितीय खंड), पृ॰ 337,338)

इसी से मिलता-जुलता अनुवाद पं॰ क्षेमकरण दास त्रिवेदी और पं॰ सातवलेकर ने किया है। अलबत्ता इन मंत्रों की क्रम संख्या में समानता नहीं है।

ईश्वर के एकत्व की बात ऋग्वेद (1-164-6, 3-54,8, 8-58-2, 10-82-3, 10-82-6, 10-82-7, 10-129-2 और 10-129-3), अथर्ववेद (10-2-23, 10-7-21, 10-8-6, 10-8-11, 10-8-28 और 10-8-29) के अतिरिक्त यजुर्वेद (32-8, 32-9, 40-4, 40-5) में भी आयी है। 

(‘‘विश्व ज्योति’’, वेद अंक, पृ॰ 164 से 169, डॉ॰ विश्व बंधु के आलेख से उद्धृत, होशियारपुर जून-जुलाई 1972) 

इन मंत्रों में ईश्वर के एक होने, उसी के पूर्व सामर्थ्यवान होने और उसकी तत्वदर्शिता का बहुत ही खुलकर उल्लेख हुआ है।


मैंने अहसान भाई को यह जवाब दिया:

Ahsan Firozabadi भाई,

आप मुझे वर्षों से पढ़ते हैं। आप यह तो बिल्कुल नहीं समझते होंगे कि मैं इन मंत्रों को और इनके अनुवाद को नहीं जानता होऊंगा।

आप गूगल में 'वेदों में एकेश्वरवाद' लिखकर डालें तो आपको ऐसे दर्जनों लेख नज़र आएंगे।


यहीं से मुस्लिम लेखक कापी पेस्ट शुरू कर देते हैं जबकि उन्होंने वेद नहीं पढ़े होते। फिर जब मैं सवाल करता हूँ तो वे जवाब नहीं देते बल्कि अन्य लेखकों के वीडियो के लिंक देने लगते हैं कि देखो फ़ुलाने आलिम भी यही कह रहे हैं।


अगर आपको यह विषय समझना है कि वेदों में तौहीद दिखाने वाले नवीन अनुवादकों ने क्या 'तकनीक' इस्तेमाल की है तो आप अपने द्वारा दिए गए मंत्रों का 'देवता' यहाँ लिखें और इन्हीं मंत्रों का पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी का किया हुआ अनुवाद लिखें।

सारी तौहीद एकदम विलीन हो जाएगी और जो वास्तव में वेदों में है, वह प्रकट हो जाएगा।


हरेक वेद के सूक्त के शुरू में एक सूची होती है, जिसमें हरेक वेद मंत्र के देवता का नाम लिखा रहता है। 

ये वेद मंत्र अधिकतर तो पूरे नहीं हैं बल्कि वेद मंत्र का एक टुकड़ा उठा लिया है और इनमें परमेश्वर का निज नाम भी नहीं है

जैसे कि क़ुरआने मजीद की आयत 'क़ुल हुवल्लाहु अहद'

अर्थात कह दे वह अल्लाह अहद (एक) है।

इन तीन शब्दों की एक आयत में परमेश्वर का निज नाम भी है और तौहीद भी है।


वेद मंत्रों के टुकड़ों में कहीं भी परमेश्वर का निज नाम नहीं है और बात 'वह' कहकर की जा रही है।

अब 'वह' शब्द से तात्पर्य परमेशवर है या सूर्य है। इसका पता सूक्त से पहले मौजूद सूची देखकर चलेगा।

जब आप वहाँ देखेंगे तो वहां वेद मंत्र का देवता 'सूर्य' लिखा मिलेगा। जिससे पता चलेगा कि वेद मंत्र का विषय सूर्य है और सूर्य के विषय में वेद मंत्र में 'वह' कहकर बात कही गई है कि 'वह' ऐसा है।


शुरु में यानी सन 1987 में मैं भी यही समझता था, जो आपने यहां लिखा है क्योंकि तब मैंने वेद स्वयं नहीं पढ़े थे। फिर 25-26 साल तक वेद पढ़ते हुए यह बात समझ में आई कि स्वामी दयानंद जी ने सूर्य, अग्नि, वायु, पृथिवी, जल, आकाश, पिता, दादा, परदादा, राहु, केतु, घोड़ा, देवी और देवता शब्दों को परमेश्वर का नाम 'माना' और इन नामों की जगह अपने अनुवाद में परमेश्वर शब्द अपनी मान्यता के कारण लिख दिया है जोकि वेद में नहीं है।

इस तरह वेदों में जो मंत्र सूर्य, अग्नि, वायु, पृथिवी, जल, आकाश, पिता, दादा, परदादा, राहु, केतु, घोड़ा, देवी और देवता आदि की तारीफ़ में हैं , उन्हें अनुवादकों ने परमेश्वर की तारीफ़ में बदल दिया है।

इस तकनीक का वर्णन स्वामी दयानंद जी ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के पहले चैप्टर में किया है।


अब अगर आप सूर्य, अग्नि, वायु, पृथिवी, जल, आकाश, पिता, दादा, परदादा, राहु, केतु, घोड़ा, बैल, देवी और देवता शब्दों को परमेश्वर का नाम या परमेश्वर मानते हैं तो आप अपने दिए मंत्रों में तौहीद मान सकते हैं।

मेरा ख़याल है कि अब आप वेद मंत्रों में तौहीद प्रकट करने की तकनीक समझ गए होंगे।


जब इन्हीं मंत्रों का अनुवाद पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी का पढ़ते हैं तो वहां परमेश्वर के बजाय सूर्य आदि का वर्णन मिलता है जोकि वास्तव में वेदों में है और‌ सूक्त से पहले सूची में भी उसी देवता का नाम लिखा मिलता है, जिसकी तारीफ़ वेद मंत्र में है और जिससे मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना वेद मंत्र में ऋषियों ने की है।

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