क्या वेद में अन्न, फल और घी को आग देवता को खिलाने की शिक्षा परमेश्वर ने दी होगी?
वैदिक साहित्य विशाल है। स्वामी दयानंद जी द्वारा उसमें से पुराणों को छोड़ना, मनु स्मृति में अपनी मर्ज़ी से छंटाई करना, त्रिकाल संध्या को 2 समय करना और सब को सुबह शाम हवन की आग में खाद्य वस्तुएं जलाने पर बाध्य करने का अर्थ यही है कि स्वामी दयानंद जी वेदों के धर्म को ठीक से समझ नहीं पाए थे वर्ना वह सडको अपने गुरु विरजानंद जी का मत बताते कि वह वेद मंत्र का क्या अर्थ बताते थे?
जो अपना धर्म न समझ पाया हो और अपने ही धर्म के ग्रंथों को नदी में डुबो चुका हो, उससे दूसरे धर्मों के आदर की अपेक्षा व्यर्थ है।
स्वामी जी ने बताया है कि उन्हें उनके पिताजी ने कुल का कलंक कहा था। जब उनके पिताजी उन्हें सिद्धपुर के मेले से पकड़कर घर ले जा रहे थे, तब स्वामी जी शौच का बहाना करके लोटा लेकर निकले और एक बड़े पेड़ पर छिपकर बैठ गए। उनका बाप उन्हें ढूंढते हुए उस पेड़ के नीचे भी आया, जिसपर स्वामी जी छिपे हुए थे लेकिन स्वामी जी अपने सगे बाप को धोखा देकर भाग गए।
इस तरह के थे स्वामी जी। फिर उन्होंने कुछ समय नशा भी किया लेकिन छोड़ दिया। अभद्र भाषा बोलना स्वामी जी से न छूट सका। सो वह अभद्र शब्द बोलते और लिखते थे तो इससे उनकी मानसिकता का पता चलता है। यही कारण है कि कोई भी आर्यसमाजी से धर्म चर्चा नहीं करना चाहता।
इनसे बात हो ही नहीं पाती। ये बात शुरू करते ही मज़ाक़ उड़ाने लगते हैं। यह इनका मेन हथियार है और इससे स्वयं इन्हीं को हानि पहुंची है। आज आर्य समाज मंदिर में सुबह शाम जाकर देख लो। आर्य समाजी युवा वर्ग भी हवन करने नहीं आता।
फलत: अधिकतर आर्य समाज मंदिरों में रविवार की सुबह 5-7 निपटे हुए से बूढ़े आ जाते हैं और वे आग जलाकर मंत्र पढ़कर घर चले जाते हैं। अगर ये 50 वर्ष का होने पर अपने धर्मानुसार वन में चले जाते तो ये 5-7 बूढ़े लोग भी अपने मंदिरों में न आ पाते।
ये अब भी कितने दिन आ पाएंगे, पता नहीं है?
क्योंकि आजकल बहू बेटे बूढ़ों को वृद्धाश्रम भेजने जुटे हुए हैं और वृद्धाश्रम के मैनेजर खाने-पीने की चीज़ें हवन में डालने के लिए देते नहीं हैं।
क्या वेद में अन्न, फल और घी को आग देवता को खिलाने की शिक्षा परमेश्वर ने दी होगी?
क्या रेगिस्तान और बर्फ़ वाले देशों में यह तरीक़ा चल सकता है?
जो सबका रचयिता हैं, वह सबको ऐसी शिक्षा क्यों देगा, जिसे सब देशों के लोग पूरा न कर सकें?
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